संसार में मां को सर्वोपरि माना गया है, ग्रंथो में मां की महिमा का वर्णन करते हुए विद्वानों ने मां को सर्वोच्च स्थान प्रदान किया है। कारण सपष्ट था स्वयं पीड़ा सहकर भी सन्तान की समृद्धि चाहने वाली मां से बढ़कर संसार में दूसरा कौन हितैषी होगा? किन्तु मां के प्रति कर्त्तव्य निभाने के स्थान पर यदि मां को अपने घर में ही कैद कर दिया जाए, बंधुआ मजदूर सरीखी उसकी स्थिति बना दी जाए, उसे पग-पग पर उत्पाड़ित किया जाए, बहू अपने कर्त्तव्य को न समझे, जो सास बहू को घर की स्वामिनी बनाकर अपने पुत्र की चाहत बनाए, यदि वही सास अपनी बहू के हाथों छली जाए, तब समाज बहू के इस कृत्य को क्या कहेगा?
भला हो सूचना क्रांति का, भला हो समाज को पैनी नजर से देखने वाली उस आंख का जिसने एक मां को अपने ही घर के बाहर ऐसे दड़बे में जीवनयापन करते देखा, जिसमें पालतू जानवरों को भी न रखा जा सकता हो। भीतर से बाहरी समाज को देखने की चाह रखने वाली बूढ़ी आंखों की दयनीय स्थिति में देखकर भला किसका ह्दय नहीं पसीजेगा। ह्दय पसीज गया, अपने देश में ही नहीं शेष विश्व में भी, उनके बेटे मां की दयनीय स्थिति देखकर भाव विह्वल हो गए, उनका गला रुंध गया, मां की ऐसी स्थिति किसी से देखी नहीं गई। बहू है या कसाई, अड़ोस-पड़ोस के लोग कैसे तमाशबीन बन गए। उन्होंने अपने ही घर में कैद बूढ़ी मां को आजाद कराने का यत्न क्यों नहीं किया।
मां ने अपने ही घर में किस-किस प्रकार के जुल्म सहे, कभी अपने परिवार के जूठे बर्तन मांजे, कभी बहू की सेवा की, बदले में क्या मिला स्नान के लिए स्वच्छ पानी भी नहीं, बर्तनों की जूठन से एकत्र पानी को मां के सिर पर उंडेल दिया गया। क्या अपने परिवार में मां ने कभी किसी को ऐसी प्रताड़नाएं दी है। बरसों तक मां ने अपना वो कमरा भी नहीं देखा, जहां कभी उसने अपने पति की उपस्थिति में राज किया था। भले ही अपनों ने मां को नकार दिया हो किन्तु सूचना क्रांति ने मां को जगत माता बना दिया। जिसने मां की बदहाली देखी, उसी ने ह्दय से मां की सलामती की दुआ की।
घटना गंभीर है, नाती-पोते वाली मां, अपनी ही बेटों की बेरुखी की शिकार बन गई। बेटों की खोज की गई तो वे मुंह दिखाने लायक भी नहीं रहे। आखिर मां को वनवास देकर किस मुंह से वे समृद्धि की ओर अग्रसर होने का प्रयास कर रहे थे।
मां आजाद हो गई। वनवास से अठारह बरस बाद मुक्ति मिली। दूसरे घर से आई महिला को क्या कहें, जब अपनी ही कोख के जने बेटे-बेटियों ने मां को उपेक्षित कर दिया हो। समाज पहले भी चल रहा था, वर्तमान में भी गतिशील है, आगे भी अस्तित्व में रहेगा। किन्तु बार-बार यही प्रश्न हर ह्दय को कचोटता रहेगा, आखिर मां के प्रति इतना जघन्य अन्याय करने की हिम्मत बेटे-बेटियों में कैसे उत्पन्न हो गई। क्या इन सामाजिक परम्पराओं व आदर्शों को खोखला सिद्ध करने वाले तत्वों को किसी प्रकार की कोई सजा मिल सकेगी?
डा. सुधाकर आशावादी