वह बनना तो चिकित्सक चाहती थीं, लेकिन अभिनय ही उनके जीवन का हिस्सा बन गया। तेलुगू फिल्मों के साथ उन्होंने करियर शुरू किया और फिर श्वेत-श्याम से लेकर रंगीन पर्दे तक मुख्य धारा के सिनेमा की शोभा बढ़ाती रहीं। जीवन के साढ़े आठ दशक पूरे कर चुकीं वहीदा रहमान को आज दादासाहेब फाल्के पुरस्कार से सम्मानित किया गया। वह यह सम्मान पाकर खुश होने के साथ- साथ भावुक भी हो गई।
वहीदा रहमान को फिल्मों ने उनके उत्कृष्ट योगदान के लिए 'दादा साहब फाल्के अवॉर्ड' से सम्मानित किया गया। राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू के हाथों सम्मान पाने के बाद वह अपने आंसू रोक नहीं पाई। उन्होंने कहा- ये उनके लिए यह गौरव का पल है। वह कहती हैं, 'आज मैं जिस मुकाम पर खड़ी हूं, अपनी इंडस्ट्री की वजह से हूं। इस दौरान हॉल में मौजूद सभी लोगों ने खड़े होकर एक्ट्रेस को सम्मान दिया और तालियों की गड़गड़ाहट के साथ उन्हें बधाई दी।
वहीदा रहमान ने अपनी स्पीच में कहा- मैंने अपने डायरेक्टर, म्यूजिक डायरेक्टर से लेकर मेकअप आर्टिस्ट और कॉस्ट्यूम डिजाइनर की शुक्रगुजार हूं। मैं यह अवॉर्ड अपनी इंडस्ट्री के साथ शेयर करना चाहती हूं। उन्होंने मुझे शुरू दिन से ही बहुत इज्जत दी, प्यार दिया। कोई भी एक इंसान पिक्चर नहीं बना सकता है। हम सभी की इसमें जरूरत होती है।' वहीदा रहमान ने अपने सात दशक के सिनेमाई जीवन में 90 से अधिक फिल्मों में काम किया है। हिंदी में उनकी पहली फिल्म 1956 में आई ‘सीआईडी' थी जिनमें उन्होंने चरित्र भूमिका अदा की थी। इसके बाद वह हिंदी फिल्म जगत की शीर्ष अभिनेत्रियों में शुमार हुईं और पिछले कुछ सालों में संक्षिप्त भूमिका निभाती रहीं।
वहीदा रहमान ने दो साल पहले एक साक्षात्कार में कहा था- ‘‘मैं डॉक्टर बनना चाहती थी, क्योंकि उन दिनों मुस्लिम परिवारों में चिकित्सा ही एकमात्र सम्मानजनक पेशा था।'' वहीदा को बचपन से कला, संस्कृति और नृत्य में रुचि थी। वहीदा ने दादासाहेब फाल्के पुरस्कार के लिए नाम चुने जाने की खबर मिलने के बाद कहा था- ‘‘मैं बहुत खुश हूं और देव आनंद के जन्मदिन पर खबर मिलने से खुशी दोगुनी हो गई। मुझे लगता है कि तोहफा उनको मिलना था, मुझे मिल गया।'' उन्होंने कहा, ‘‘मैं सरकार की आभारी हूं कि उन्होंने इस सम्मान के लिए मुझे चुना। इसलिए यह इसका और देव साहेब के 100वें जन्मदिन का सामूहिक उत्सव है।''
वहीदा रहमान ने बांग्ला सिनेमा में भी काम किया है। सत्यजीत रे की ‘अभिजान' में अभिनय करने के साथ वह 1950 और 60 के दशकों की सबसे अधिक कमाई वाली अभिनेत्रियों में शामिल हो गईं। उन्हें 1971 में आई ‘रेशमा और शेरा' के लिए सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री के राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार से नवाजा गया। 1976 में वह अमिताभ बच्चन के साथ ‘कभी कभी' में दिखाई दीं तो दो साल बाद ही उन्होंने ‘त्रिशूल' में और फिर 1982 में ‘नमक हलाल' में बच्चन की मां का किरदार अदा किया। बाद में वह अपने परिवार के साथ बेंगलुरु में बस गईं।