लोग ना जाने बेटियों को क्यों बोझ समझते हैं जबकि बेटियां बेटों से ज्यादा मां-बाप से भावात्मक जुड़ी होती हैं। घर को चलाने से लेकर परिवार की जिम्मेदारियों का बोझ भी ये बेटियां बिना किसी शिकवे के उठा लेती हैं, बालाघाट की इस 12 साल की बेटी ने भी मिसाल के रुप में सामने आई है जब भाई बीमार पड़ा तो पिता के साथ हाथ बंटाने को खड़ी हो गई रेशमा।
रेशमा ने निभाया बेटी होने का फर्ज
जी हां, कोरोना काल में पिता के साथ हाथ बंटाने के लिए खुद बैल गाड़ी में रेत भर कर ले जाती हुई नजर आई। इससे पहले यह काम पिता और उसका बड़ा भाई करता था लेकिन जब तबीयत खराब हुई तो रेशमा ने बेटी का फर्ज निभाया और रोजी रोटी चलाने में अहम भूमिका निभा रही है। लॉकडाउन में बेरोजगारी के चलते परिवार का गुजर बसर करना मुश्किल हो गया था, जिसके चलते रेशमा के पिताजी नदी से रेत लाकर बेचते है जिससे उनका घर चलता है और अपने परिवार के लिए जैसे-तैसे दो वक्त की रोटी का इंतजाम कर पाते है।
पिता के लिए बनी बेटा
महज 12 साल की रेशमा वारासिवनी के टिहली बाई स्कूल में 7वी क्लास में पढ़ती है। रेशमा ने बताया कि उसका भाई उसके पिता के कामों में हाथ बंटाया करता है लेकिन उसकी तबियत खराब होने के कारण वह अभी नही जा रहा है जिस कारण रेशमा ने भाई की तरह अपने पिता की मदद की। भाई की तबियत खराब होने के कारण उसे लगा कि उसके पिता अकेले परेशान हो जाएंगे। इसलिए रेशमा ने अपने पिता का हाथ बंटाते हुए भाई की जगह खुद ली और पिता के साथ बैल गाड़ी का कासरा थाम लिया। और पिता के साथ काम मे जुट गई। वही रेशमा पढ़ाई में तो अव्वल है ही साथ ही साथ वह अपने घरों के कामों मे अपनी मां का भी पूरी तरह हाथ बंटाती है और उसका सपना है कि वह पढ़ाई करके बड़ी होकर डॉक्टर बने।
बता दें कि बालाघाट जिले में महिलाओं का लिंगानुपात पुरुषों के मुकाबले अधिक है क्योंकि बालाघाट में बेटियों को देवी तुल्य ही नही बल्कि अदम्य साहस के तौर पर भी माना जाता है, यही कारण है कि पिछले कई वर्षों से मध्यप्रदेश के बालाघाट जिले में महिलाओं की संख्या पुरुषों से अधिक है चाहे शिक्षा का क्षेत्र हो,खेल का मैदान या किसी भी अन्य क्षेत्र की बात बालाघाट की बेटियों ने खुद को बेहतर से बेहतर ही साबित किया है।
रेशमा की कहानी उन लोगों के लिए प्ररेणा है जो बेटियों को बोझ समझते हैं वहीं उन्हें बेटों के बराबर दर्जा नहीं देते।