कान्हा की नगरी में बंगाल जैसा अनूठा शारदीय दुर्गा पूजा महोत्सव ब्रजवासियों के साथ साथ तीर्थयात्रियों को भी पिछले तीन दशक से अधिक समय से सुखद आनन्द दे रहा है। वैसे तो दुर्गा पूजा ब्रज के हर घर में पूरी श्रद्धा और भक्ति से मनाई जाती है। इसके अलावा विभिन्न मोहल्लों में भी सामूहिक रूप से इसका आयोजन किया जाता है पर पिछले 31 वर्ष से अधिक समय से कालिन्दी धाम मसानी में इसका आयोजन अपनी अलग पहचान ही नही बना चुका है बल्कि कार्यक्रम स्थल पर जाने पर ऐसा लगता है कि कान्हा की नगरी ही पश्चिम बंगाल बन गई है।
इस कार्यक्रम की सबसे बड़ी विशेषता बंगालियों द्वारा मां दुर्गे की पूर्ण भक्ति भाव से की गई सामूहिक आराधना है। कार्यक्रम स्थल पर जाने पर लगता है कि मूल रूप से बंगाल के निवासी मां दुर्गा की भक्ति में रंग गए हैं। जिसके पास धन है वह उससे सहयोग कर रहा है और जिसके पास धन नही है वह तन और मन से इस आयोजन को सफल बनाने में इतना अधिक तल्लीन है कि लगता है कि यह कार्यक्रम उसका निजी कार्यक्रम है। यह इस कार्यक्रम की विशेषता कहें या मां दुर्गा की कृपा कहें कि वर्ष पर्यन्त बंगाल के ये निवासी आपसी सौहार्द्र बनाए रखते हैं। इनमें किसी प्रकार का मनमुटाव देखने को नही मिलता है।
दुर्गा पूजा महोत्सव समिति के अध्यक्ष सुनील शर्मा ने बताया कि 20 अक्टूबर से पांच दिन तक चलने वाले इस कार्यक्रम का मुख्य अंश मां दुर्गा का अनूठा चकाचौंध करनेवाला श्रंगार एवं मां की श्रद्धा में रोज शाम आरती के समय आयोजित किया जानेवाला सांस्कृतिक कार्यक्रम विशेषकर धूनूची नृत्य है। मां दुर्गा के स्वरूप महिषासुरमर्दिनी का विशेष पूजन भी इस कार्यक्रम की विशेषता है। उन्होंने बताया कि बंगाल में महालय के दिन माता को आमंत्रित करने के लिए कन्याओं को भोजन कराने की मान्यता है।
पश्चिम बंगाल में पंडालों में दुर्गा पूजा के आयोजन को बारा कहा जाता है। बंगाल से आये विशेष वाद्य यन्त्र ढाक की ताल पर महिलाओं और पुरूषों का सामूहिक नृत्य तथा 22 अक्टूबर को प्रसिद्ध बॉलीवुड सिंगर राना साद एवं उनकी टीम के कलाकारों की अनूठी प्रस्तुति इस कार्यक्रम का आकर्षक अंश होगा। इस कलाकार की प्रस्तुति में सभी के सुखमय जीवन की कामना की जाएगी।
अध्यक्ष ने बताया कि कार्यक्रम के समापन के पहले सभी विवाहित महिलाएं सिंदूर से होली जैसा खेलती है और उत्साह से मां को विदा करती है इसे सिंदूर खेला कहते है। कार्यक्रम का समापन यमुना में मूर्ति का विसर्जन से होता है जिसके आकर्षण के कारण हर साल बंगाली समुदाय के साथ साथ अन्य समुदाय के लोग भी इसमें शामिल हो जाते हैं और कान्हा की नगरी एक प्रकार से कोलकाता बन जाती है।