
नारी डेस्क : भारत की सबसे प्राचीन पर्वत श्रृंखला, अरावली, अब गंभीर खतरे में है। हाल ही में लागू हुई नई कानूनी परिभाषा के कारण इस पारिस्थितिक रूप से महत्वपूर्ण पर्वतमाला के कई हिस्से संरक्षण से बाहर हो सकते हैं। अरावली गुजरात से राजस्थान, हरियाणा और दिल्ली तक फैली हुई है और लंबे समय से मरुस्थलीकरण के खिलाफ प्राकृतिक अवरोधक, भूजल पुनर्भरण प्रणाली और जलवायु संतुलन बनाए रखने में अहम भूमिका निभाती रही है।
नई परिभाषा में परिवर्तन
नई परिभाषा के अनुसार, अब अरावली पर्वतमाला केवल उन्हीं भू-आकृतियों तक सीमित रहेगी, जिनकी ऊंचाई ढलानों सहित कम से कम 100 मीटर हो। हालांकि यह वैज्ञानिक वर्गीकरण लगता है, परंतु इसका प्रभाव पारिस्थितिक दृष्टि से गंभीर है। इससे निचली पहाड़ियों, चट्टानी इलाकों और वन क्षेत्रों जैसे पारिस्थितिक रूप से महत्वपूर्ण हिस्सों को कानूनी सुरक्षा से वंचित किया जा सकता है।
पारिस्थितिक तंत्र पर प्रभाव
छोटी पहाड़ियां केवल भूवैज्ञानिक संरचना नहीं हैं। ये भूजल पुनर्भरण क्षेत्र, वन्यजीव गलियारे, धूल अवरोधक और जलवायु नियंत्रक का काम करती हैं। पर्यावरणविदों का कहना है कि अरावली का महत्व उसकी ऊंचाई में नहीं बल्कि उसके पारिस्थितिक कार्यों में है। ये क्षेत्र दिल्ली-एनसीआर को प्रभावित करने वाले मरुस्थलीकरण और धूल भरी आंधियों के विरुद्ध महत्वपूर्ण अवरोधक हैं।
विपत्ति का खतरा
100 मीटर की सीमा से नीचे आने वाले क्षेत्रों पर अब खनन, निर्माण और अवसंरचना विस्तार जैसी गतिविधियां कानूनी रूप से संभव हो सकती हैं, भले ही ये क्षेत्र संरक्षण वाले हिस्सों के समान पारिस्थितिक भूमिका निभाते हों। इससे पर्यावरणीय गिरावट की संभावना बढ़ जाएगी। अरावली की नई परिभाषा के अनुसार इसके लगभग 90% हिस्से अब विनाश के खतरे में आ सकते हैं।
कानूनी का यह बदलाव पारिस्थितिक वास्तविकता से अलग होने पर विनाश का साधन बन सकता है। निचले इलाकों से संरक्षण हटाने का परिणाम भूजल स्तर में गिरावट, तापमान में वृद्धि और मानव-वन्यजीव संघर्ष के रूप में सामने आ सकता है। विशेषज्ञों का कहना है कि अरावली की सुरक्षा के लिए न केवल ऊंचाई बल्कि उसके पारिस्थितिक कार्यों को भी कानूनी संरक्षण में शामिल किया जाना चाहिए।