कौन कहता है आसमां में सुराख नहीं हो सकता एक पत्थर तो तबियत से उछालो यारों। कुछ ऐसा ही किया बिहार में जन्मीं 71 साल की आशा खेमका ने। एक छोटी से गांव में रहने वाली आशा बदकिस्मती से अपनी पढ़ाई भी पूरी नहीं कर पाई थीं। लेकिन उन्होंने इसके चलते कभी सपने देखना नहीं छोड़ा। वो अपने सपनों को पाने के लिए काम करती रहीं और अब वो ना सिर्फ ब्रिटेन के एक प्रतिष्ठित कॉलेज की प्रिंसिपल हैं, बल्कि उन्हें 'एशियन बिजनेसवुमेन ऑफ द ईयर' के खिताब से भी नवाजा गया है। आइए डालते हैं आशा की सफलता के सफर पर एक नजर...
13 साल में उम्र में छूट गई थी पढ़ाई
आशा भले ही आज ब्रिटेन के कॉलेज की प्रिंसिपल हैं, लेकिन उन्हें महज 13 साल की उम्र में पढ़ाई छोड़नी पड़ी । सुनने में आपको ये बेशक ही कोई फिल्मी कहनी लगे, पर ऐसा है नहीं। दरअसल आशा की शादी बहुत ही कम उम्र में हो गई थी। आशा को अंग्रेजी नहीं आती थी, लेकिन उन्होंने इस बात को कभी अपनी कमजोरी नहीं बनने दिया। साल1978 को वो अपने परिवार के साथ बिहार की सीतामढ़ी से ब्रिटेन आ गईं। उस वक्त उन्होंने बिल्कुल भी अंग्रेजी नहीं आती थी। लेकिन उन्होंने खुद को अंग्रेजी सीखाई।
टीवी शो देखकर सीखी अंग्रेजी
कुछ कर दिखाने में उन्होंने बच्चों के टीवी शो देखकर और दूसरों से बातचीत करके उन्होंने अंग्रेजी सीखी। जब बच्चे कुछ बड़े हो गए तो उन्होंने अपनी पढ़ाई को फिर से शुरू किया। फिर कार्डिफ यूनिवर्सिटी से बिजनेस डिग्री हासिल की और उसके बाद टीचिंग के क्षेत्र में कदम रखा। फिर 2006 में वह वेस्ट नॉटिंघम कॉलेज की प्रिंसीपल बनीं। यह कॉलेज इंग्लैंड के सबसे बड़े कॉलेजों में से एक है। आज आशा खमेका ‘असोसिएशन ऑफ कॉलेजेज इन इंडिया’ की चेयरपर्सन भी हैं। उनका एक चैरिटेबल ट्रस्ट भी है ‘द इंस्पायर एंड अचीव फाउंडेशन’। 2013 में उन्हें ब्रिटेन के सर्वोच्च नागरिक सम्मानों में से एक ‘डेम कमांडर ऑफ द ऑर्डर ऑफ द ब्रिटिश एम्पायर’ से सम्मानित किया जा चुका है।