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Navratri: मां दुर्गा का दूसरा रूप देवी ब्रह्मचारिणी, पढ़िए जन्मकथा और पूजन विधि

  • Edited By Anjali Rajput,
  • Updated: 13 Apr, 2021 04:37 PM
Navratri: मां दुर्गा का दूसरा रूप देवी ब्रह्मचारिणी, पढ़िए जन्मकथा और पूजन विधि

नवरात्रि के दूसरे दिन नवदुर्गा के स्वरूप देवी ब्रह्मचारिणी की पूजा होती है। मान्यता है कि तप, त्याग, वैराग्य, सदाचार, संयम से त्याग और तपस्या की देवी ब्रह्मचारिणी का व्रत करने पर अनन्तफल मिलता है। ब्रह्म का अर्थ है तपस्या और चारिणी यानी आचरण करने वाली। इस प्रकार ब्रह्मचारिणी का अर्थ हुआ तप का आचरण करने वाली।

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मां ब्रह्मचारिणी की जन्म कथा

दाहिने हाथ में जप की माला एवं बाएं हाथ में कमण्डल धारण करने वाली माता ब्रह्मचारिणी ने माता पार्वती के रूप में पर्वतराज के यहां जन्म लिया था। महादेव को पति रूप में पाने के लिए माता ने देवर्षि नारद के कहने पर हजारों सालों तक कठोर तपस्या की थी। जंगल में जाकर केवल फल और वृक्षों से गिरे सूखे पत्तों खाकर कठिन तपस्या की। इसकी वजह से उनका नाम तपश्चारिणी या ब्रह्मचारिणी पड़ा। अपनी कठिन परिक्षा से देवी ने महादेव को भी प्रसन्न कर लिया था।

मां दुर्गा के ब्रह्मचारिणी स्वरूप की पूजा विधि

सबसे पहले लकड़ी की चौकी पर लाल कपड़ा बिछाकर देवी की तस्वीर स्थापित करें।। फिर फूल, अक्षत, रोली, सिंदूर, चंदन से देवी ब्रह्मचारिणी की पूजा करें। इसके बाद पंचामृत (दूध, दही, घृत, मधु और शक्कर) से देवी को स्नान करवाएं। देवी को प्रसाद अर्पित करने के बाद आचमन, पान, सुपारी चढ़ाएं। इसके बाद हाथों में एक फूल लेकर "इधाना कदपद्माभ्याममक्षमालाक कमण्डलु, देवी प्रसिदतु मयि ब्रह्मचारिण्यनुत्त्मा" मंत्र का जाप करें।

कैसे करें देवी मां को प्रसन्न

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देवी ब्रह्मचारिणी को हरा रंग अतिप्रिय है इसलिए नवरात्रि के दूसरे दिन हरे रंग के कपड़े पहनें। वहीं, देवी को अरूहूल का फूल व कमल बेहद प्रिय होते हैं इसलिए माता को इन्ही फूलों की माला पहनाएं। घी व कपूर मिलाकर देवी की आरती करें। आप चाहे तो मां को प्रसाद भी हरे रंग का चढ़ा सकते हैं।

मां ब्रह्मचारिणी का स्रोत पाठ

तपश्चारिणी त्वंहि तापत्रय निवारणीम्।
ब्रह्मरूपधरा ब्रह्मचारिणी प्रणमाम्यहम्॥
शंकरप्रिया त्वंहि भुक्ति-मुक्ति दायिनी।
शान्तिदा ज्ञानदा ब्रह्मचारिणीप्रणमाम्यहम्॥
“मां ब्रह्मचारिणी का कवच”
त्रिपुरा में हृदयं पातु ललाटे पातु शंकरभामिनी।
अर्पण सदापातु नेत्रो, अर्धरी च कपोलो॥
पंचदशी कण्ठे पातुमध्यदेशे पातुमहेश्वरी॥
षोडशी सदापातु नाभो गृहो च पादयो।
अंग प्रत्यंग सतत पातु ब्रह्मचारिणी।

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