शारदीय नवरात्रि का समापन होने वाला है। नवरात्रि खत्म होने के बाद दशहरे का उत्सव बहुत ही धूमधाम से मनाया जाता है। लेकिन देवभूमि हिमाचल के कुल्लु का दशहरा सबसे ज्यादा लोकप्रिय है। दूर-दूर से लोग हर साल कुल्लू का दशहरा देखने आते हैं। यहां रावण नहीं जलाया जाता बल्कि अलग तरीके से यहां पर लंकापति रावण का उत्सव मनाया जाता है। ऐसा माना जाता है दशहरे के मेले में भाग लेने के लिए खुद देवता पृथ्वी पर आते हैं। तो चलिए आपको बताते हैं कि कैसे यह त्योहार मनाया जाता है....
बिना रावण के मनाया जाता है दशहरा
कुल्लू में रावण का पुतला नहीं जलाया जाता और न ही कोई कहानी सुनाई जाती है। यहां पर सिर्फ देवताओं के मिलन और उनके रथों को खींचते हुए ढोल-नगाड़ों की धुनों पर नाटी करते हुए लोग यह पर्व मनाते हैं। यहां पर दशहरा सात दिनों तक चलता है। यह दशहरा हिमाचल की धार्मिक संस्कृति और आस्था का प्रतीक माना जाता है।
7 दिनों तक चलता है दशहरा का उत्सव
कुल्लू के दशहरा तब मनाया जाता है जब सारी दुनिया में दशहरे का पर्व खत्म हो जाता है। बाकी जगहों की तरह यहां पर एक दिन नहीं बल्कि सात दिनों तक दशहरे का उत्सव चलता है। इस त्योहार को दशमी कहा जाता है। यहां के स्थानीय लोगों का मानना है कि इस दौरान करीबन 1000 देवी-देवता पृथ्वी पर आकर इस त्योहार में शामिल होते हैं।
100 से ज्यादा देवी-देवता भी होते हैं शामिल
कुल्लू का दशहरा हिमाचल की संस्कृति, परंपरा, रीति-रिवाज और ऐतिहासिकता की दृष्टि से बहुत ही अहम माना जाता है। भगवान रघुनाथ की भव्य यात्रा के साथ इस दशहरे की शुरुआत होती है। ऐसा माना जाता है कि देवी-देवता ढोल-नगाड़ों की धुन पर मिलने के लिए आते हैं। हिमाचल जिले के लगभग हर गांव का अलग-अलग देवता होते हैं इन्हीं देवता लोगों को स्थानीय लोग अपना कर्ता-धर्ता भी मानते हैं। एक भव्य पालकी का आयोजन होता है जिसमें 100 से भी ज्यादा देवी-देवता शामिल होते हैं।
ऐसे हुई थी शुरुआत
कुल्लू के दशहरे की शुरुआत 1662 में हुई थी। ढालपुर मैदान में देव परंपराओं के मुताबिक ही इस दशहरे को मनाया जाता था उस दौरान न कोई व्यापार था और न ही सांस्कृतिक कार्यक्रम। कोरोना काल में भी दशहरे का उत्सव नहीं मनाया गया था। ऐसा माना जाता है कि दशहरे के पहले दिन मनाली की देवी हिडिंबा कुल्लू में आती हैं। जिसके लिए राजघराने के सभी सदस्य देवी-देवताओं का आशीर्वाद लेने भी पहुंचते हैं।
देवता रघुनाथ की होती है पूजा
पौराणिक मान्यताओं के अनुसार, ऐसा माना जाता है कि 1650 में कुल्लू के राजा जगत सिंह को एक बहुत ही भयंकर बीमारी हो गई थी। जिसके बाद बाबा पयहारी ने उन्हें बताया कि अयोध्या के त्रेतानाथ मंदिर से भगवान रघुनात की मूर्ति लेकर आएं और उसके चरणामृत से बीमारी का इलाज करें। इसके बाद कई संघर्षों के बाद रघुनाथ जी की मूर्ति को स्थापित किया गया। मूर्ति स्थापना के दौरान राजा जगत ने कई देवी-देवताओं को भी आमंत्रित किया। सारे देवी-देवताओं ने भगवान रघुनाथ जी को अपना देवता मान लिया । देव मिलन से शुरु हुआ यह त्योहार दशहरे के रुप में मनाया जाता है।