हर साल हज़रत निज़ामुद्दीन औलिया की दरगाह पर बसंत पंचमी के दिन बेहद ही शानदार नजारा देखने को मिलता है। यहां बसंत पंचमी का त्योहार बड़े ही श्रद्धा और हर्षोल्लास के साथ मनाया जाता है। इस साल 14 फरवरी को भी कुछ ऐसी ही धूम देखने को मिली, पूरी दरगाह पीली सरसों एवं गेंदे के फूलों से महक उठी थी।
हजारों की संख्या में पहुंचे लोगों ने दरगाह पर गेंदे व सरसों के फूल का गुलदस्ता भेंट किया। यहां बसंतोत्सव के दिन कव्वाली सुनाने के लिए दूर-दूर से कव्वाल आए, पूरा आलम सूफीयाना रंग में रंगा हुआ दिखाई दिया। यहां की बेमिसाल परंपरा को देखने मुस्लिम ही नहीं बल्कि हिन्दू और विदेशी सैलानी पहुंचते हैं। .
बताया जाता है कि दरगाह पर ये त्योहार एक या दो साल नहीं, बल्कि पूरे 800 साल पहले से अब तक मनाया जाता रहा है। पौराणिक कथाओं की मानें तो हजरत निजामुद्दीन जिसकी कोई संतान नहीं थी, उन्हें अपने भांजे से बेहद लगाव था लेकिन किसी कारणवश उसकी मृत्यु होने की वजह से हजरत निजामुद्दीन सदमे में रहने लगे थे। उनके चेहरे पर मुस्कान लाने के लिए अमीर खुसरो ने एक उपाय खोजा.
एक बार वसंत पंचमी पर गांव में पीले रंग की साड़ी और सरसों के फूल लेकर गीत गाती हुई मंदिर जा रही महिलाओं से अमीर खुसरो ने इसकी वजह पूछी तो उन्होंने बताया कि ऐसा करने से ईश्वर प्रसन्न होते हैं। वह भी हजरत निजामुद्दीन के सामने वसंती चोला पहनकर सरसों के फूल लेकर 'सकल बन फूल रही सरसों' गीत गाते हुए पहुंच गए। -अमीर खुसरो को इस तरह देख हजरत निजामुद्दीन के चेहरे पर मुस्कान आ गई, तभी से यह पर्व मनाया जा रहा है।
इस दिन हजरत निजामुद्दीन औलिया की दरगाह पर पीले रंग की चादर चढ़ाने के साथ- साथ पीले फूल और पीले रंग की लाइट से भी इस दरगाह को सजाया जाता है। मुस्लिम समुदाय के लोग पीले रंग का पटका और पगड़ी पहनते हैं। इस वसंत उत्सव पर भी आपसी भाईचारे और साम्प्रदायिक सौहार्द का नजारा देखने को मिला.