नारी डेस्क: हां देश बदल रहा है लेकिन क्या पुरानी सोच बदली है? क्या लड़कियों को लेकर मानसिकता बदली है? क्या एक बेटी के पिता का बोझ कम हुआ है? देश असल में तब बदलेगा जब हम बदलेंगे, वो रीति-रिवाज बदलेंगे जो लोगों की स्वतंत्रता को छीन रहे हैं। सभी नहीं लेकिन कुछ ऐसे रिवाज हैं जो इंसान को आगे बढ़ने या बाहर निकलने से रोकते हैं।
दहेज को दे दिया नया रूप
हाल ही में हिमाचल प्रदेश सरकार ने ऐतिहासिक फैसला लेते हुए लड़कियों की शादी की न्यूनतम उम्र को 18 से बढ़ा कर 21 वर्ष कर दी है। 21 वर्ष की उम्र तक लड़की अपनी पढ़ाई पूरी कर सकती है. वहीं, इस उम्र तक शारीरिक और मानसिक तौर पर भी लड़की का विकास होता है। पर इस बीच सवाल यह है कि क्या इस कानून से उस पिता की चिंताएं कम होंगी जो बेटी की शादी के बोझ में बुरी तरह दब जाता है। हालांकि इस मॉर्डन जमाने में लोग दहेज की मांग तो नहीं करते पर सामान लेने से मना भी नहीं करते।
सामान के मुताबिक होती है बहू की इज्जत
आज कल यह कह दिया जाता है हमें तो कुछ नहीं चाहिए जो देना है आपने अपनी बेटी को देना है। यानी कि ससुराल में बेटी के रहने- सहने की जिम्मेदारी बाप के उपर ही आ जाती है। जितना वह अच्छा सामान देगा उसकी बेटी की उतनी ही इज्जत होगी। जब तक लड़के वालों का लालच खत्म नहीं होगा और एक बेटी का बाप पिसता रहेगा तब तक इस देश के बदलने की उम्मीद करना मुश्किल है।
मृत्युभोज को लेकर श्रीकृष्ण ने कही थी ये बात
महाभारत के अनुशासन पर्व में आए एक प्रसंग के अनुसार श्री कृष्ण ने कहा था- जब खिलाने वाले और खाने वाले का मन प्रसन्न हो, तभी भोजन करना चाहिए लेकिन जब दोनों के दिल में दर्द और पीड़ा हो ऐसी स्थिती में कभी भी भोजन नहीं करना चाहिए। श्रीकृष्ण कहते हैं, शोक में करवाया गया भोजन व्यक्ति की ऊर्जा का नाश करता है। अत: मृत्युभोज या तेरहवीं पर भोजन नहीं खाना चाहिए। पर इस बात पर कितने लोग अमल कर रहे हैं।
संकल्प लेना जरूरी
हमारे देश में मृत्युभोज खाने एवं खिलाने की परम्परा हजारो सालो से कायम है। वैसे तो मृत्यु भोज का खाना बहुत ही साधारण , बिना तेल मसाले और व्यंजनों से रहित होने की परम्परा रही है पर अब दिखावे के चक्कर में इसे भी शादी जैसा भोज बनाने का काम शुरू हो चुका है। यानी कि अब ये प्रथा एक बड़ी बुराई का रूप धारण कर चुकी है। इस कुरीति के कारण जहां परिवार अपने को खाेने का दुख बना रहा होता है वहीं दूसरी ओर लोगों को खिलाने की चिंता में खोया हुआ होता है। ऐसे में ये संकल्प लेना जरूरी है कि मृत्यु भोज को ग्रहण नहीं करेंगे और मृत्युभोज प्रथा को रोकने का हर संभव प्रयास करेंगे।