‘‘मेरी उम्र अब अस्सी साल हो गई है । इतने साल बहुत कोशिश की लेकिन अब इस उम्र में मतदाता के रूप में पहचान पाकर भी क्या करूंगी? दर- दर भटकने से अच्छा है कि आखिरी समय शांति से प्रभु के भजन में बिता दूं।'' यह कहना है वृंदावन में एक मंदिर में भजन के लिये अपनी बारी का इंतजार कर रही अनिता दास का। कोलकाता से 17 साल पहले पति के निधन के बाद वृंदावन आई दास की तरह की हजारों विधवायें ऐसी हैं जिन्हें परिवार ने ठुकरा दिया, समाज ने भी जगह नहीं दी और मतदाता पहचान पत्र नहीं होने के कारण अब लोकतंत्र के सबसे बड़े पर्व चुनाव में भी उनकी सहभागिता नहीं है।
चार घंटे भजन गाने पर मिलते हैं दस रूपये
मथुरा लोकसभा क्षेत्र में वृंदावन, राधाकुंड और गोवर्धन की तंग गलियों में कहीं भीख मांगती, कहीं तपती धूप में भंडारे की कतार में खड़ी तो कहीं मात्र दस रूपये के लिये चार घंटे भजन गाने के लिये अपनी बारी का इंतजार करती सफेद साड़ी में लिपटी ये महिलायें किसी राजनीतिक दल का वोट बैंक नहीं हैं। परिवार छोड़ा तो पहचान भी ये वहीं छोड़ आईं । आश्रमों में रहने वाली इन महिलाओं में से नाममात्र के पास मतदाता के रूप में पहचान पत्र है लेकिन उम्र के आखिरी पड़ाव पर खड़ी इन अधिकांश महिलाओं का नाम किसी मतदाता सूची में दर्ज नहीं है।
सालों से इन महिलाओं ने नहीं डाला वोट
पति के निधन के बाद बहू की कथित प्रताड़ना से तंग आकर 15 साल पहले यहां आई महानंदा अपनी स्मृति पर जोर डालने की कोशिश करते हुए कहती हैं,‘‘ शायद दस साल पहले वोट डाला था। मेरे पास आधार कार्ड है लेकिन वोटर आई डी नहीं है और बनवाने के लिये अब इधर किसको बोलूं?'' लेकिन 67 साल की गायत्री मुखर्जी को इसका मलाल है कि वह देश की नागरिक तो हैं लेकिन मतदाता नहीं। पति के ना रहने के बाद इकलौती बेटी को कैंसर से खोने के कारण बेसहारा हुई मुखर्जी इलाज के लिये लिया गया कर्जा चुकाकर वृंदावन आई थीं। उन्होंने कहा-‘‘ पहले मैं किराये से रहती थी लेकिन हमेशा डर रहता था कि पास में थोड़ा बहुत जो भी सामान है, चोरी न हो जाये। इसके अलावा कदम- कदम पर अपमान होता था सो अलग। मेरी किस्मत अच्छी थी कि आश्रम में जगह मिल गई।''
वृंदावन में हैं 10 से 12 हजार विधवायें
वैसे तो कभी भी इन महिलाओं की आधिकारिक तौर पर गिनती नहीं की गई लेकिन एक अनुमान के अनुसार करीब 10 हजार से 12 हजार विधवायें वृंदावन में हैं। पिछले चौदह साल से इन महिलाओं के कल्याण के लिए कार्यरत ‘मैत्री' विधवा आश्रम की सह संस्थापक और कार्यकारी निदेशक विन्नी सिंह ने कहा-‘‘ आखिरी बार 2007 में इनकी गणना हुई थी जिसके बाद से कोई आधिकारिक आंकड़ा नहीं है लेकिन करीब 10 से 12 हजार विधवायें वृंदावन में हैं।'' इनमें अब सिर्फ बंगाल ही नहीं बल्कि महाराष्ट्र, गुजरात, छत्तीसगढ, मध्यप्रदेश से भी महिलायें आ रही हैं।उन्होंने कहा- हम 400 महिलाओं की देखभाल कर रहे हैं लेकिन इससे कहीं बड़ा आंकड़ा उनका है जिनके पास छत नहीं है।''
सिर्फ 300 रूपये मिलती है पेंशन
अभिनेता आमिर खान के काफी लोकप्रिय रहे शो ‘सत्यमेव जयते' में विधवाओं की व्यथा रखने वाली सिंह ने कहा-‘‘ अधिकांश को विधवा पेंशन जैसी सरकारी योजनाओं का फायदा नहीं मिल पा रहा है। सिर्फ 300 रूपये महीना पेंशन का प्रावधान है लेकिन दुखद है कि वह भी सभी को मयस्सर नहीं है।'' कुछ को निजी या सरकारी आश्रमों में जगह मिल गई लेकिन अधिकांश तंग और किराये के गंदे कमरों में रहने को मजबूर हैं। मंदिरों के शहर वृंदावन में भजन गाने के लिये इन्हें टोकन मिलता है और चार घंटे भजन गाकर दस रूपये के साथ चाय और एक समय का खाना। अपनी बारी आने के लिये इन्हें लंबा इंतजार भी करना पड़ता है।
भगवान कृष्ण से नहीं रहना चाहती दूर
वृंदावन के बीचोंबीच चैतन्य विहार स्थित सरकारी आश्रय सदन को बंद करके इन्हें शहर के बाहरी इलाके में साढे़ तीन एकड़ में फैले एक हजार बिस्तरों वाले कृष्ण कुटीर में भेजा गया लेकिन वहां मुश्किल से 250 महिलायें रहती हैं। अधिकांश महिलायें इसलिये नहीं जाना चाहती कि वे भगवान कृष्ण और वृंदावन से दूर हो जायेंगी।
इन पर नहीं है किसी का ध्यान
मथुरा से तीसरी बार चुनाव लड़ रही सांसद हेमा मालिनी ने कहा-,‘‘2018 में इनके लिये कृष्ण कुटीर बनाया गया जहां सारी अत्याधुनिक सुविधायें हैं। लेकिन ये वहां जाना ही नहीं चाहतीं। शायद ये जहां रहती हैं, वहीं खुश हैं। हम भी क्या कर सकते हैं।'' चुनावी महाकुंभ में इनके लिये किसी के पास कोई वादा नहीं है और ना ही भविष्य में कुछ बदलने का किसी ने सपना दिखाया है । परिवार के साथ समाज और सियासत ने भी इन्हें इनके हाल पर छोड़ दिया है और इन्होंने भी मान लिया है कि बृजभूमि की गलियों में गुमनाम मौत के अलावा इनके मुस्तकबिल में कुछ और है ही नहीं ।