बिहार के मुंगेर जिले में सुप्रसिद्ध मां चंडिका मंदिर में मां सती के एक नेत्र की पूजा की जाती है और श्रद्धालुओं को नेत्र संबंधी विकार से मुक्ति मिलती है। मुंगेर जिला मुख्यालय से करीब दो किलोमीटर पूरब गंगा किनारे पहाड़ी गुफा में अवस्थित मां चंडिका का मंदिर लाखों भक्तों के लिए ‘आस्था‘ का केन्द्र बना हुआ है।
इस मंदिर से काजल लेकर जाते हैं भक्त
ऐसी मान्यता है कि इस स्थल पर माता सती की बाईं आंख गिरी थी। यहां आंखों के असाध्य रोग से पीड़ति लोग पूजा करने आते हैं और यहां से काजल लेकर जाते हैं। लोग मानते हैं कि यह काजल नेत्ररोगियों के विकार दूर करता है। पौराणिक मान्यता के अनुसार, भगवान शंकर जब अपनी पत्नी सती के मृत शरीर को लेकर तीनों लोकों में घूम रहे थे तब संपूर्ण सृष्टि भयाकूल हो गयी थीं तभी देवताओं के अनुरोध पर भगवान विष्णु ने सुदर्शन चक्र से सती के शरीर को खंडित किया था।
शक्तिपीठ के रूप में शामिल है ये मंदिर
जहां-जहां सती के शरीर का खंड गिरा उसे शक्तिपीठ माना गया। मुंगेर का चंडिका मंदिर भी शक्तिपीठ के रूप में शामिल है। नेत्र रोग से पीड़ित भक्तगण चंडिका मंदिर में नेत्र-रोग से मुक्ति की आशा लेकर आते हैं। सामाजिक मान्यता है कि कोई भी भक्त निराश नहीं लौटता है। संतान की चाहत और जीवन की अन्य इच्छाओं की पूर्ति के लिए भक्त राज्य के कोने-कोने से इस मंदिर में पहुंचते हैं। ऐसी मान्यता है कि इस मंदिर के काजल से हर प्रकार के नेत्रविकार दूर होते हैं। दूर-दूर से पीड़ित भक्तजल यहां मंदिर का काजल लेने पहुंचते हैं।
नवरात्र में रहती है भारी भीड़
नवरात्र-पूजा के दौरान नवमी तक इस मंदिर में भक्तों की भीड़ देखने को मिलती हैं। कतार में लगकर भक्त इस व्यवस्था से मां चंडिका के नेत्र पर जल-अर्पण करते हैं।मंदिर में भगवान शंकर, माता पार्वती, नौ ग्रह देवता, मां काली और मां संतोषी और भगवान हनुमान के अलग-अलग मंदिर भी हैं, जहां भक्तजन पूजा-अर्चना करते हैं। सामान्य दिनों में प्रत्येक मंगलवार को मंदिर में काफी संख्या में भक्तजन पहंचते हैं। मंदिर के पूर्व और पश्चिम में शमशान है। इसी कारण इस मंदिर को शमशान चंडिका'के रूप में भी जाना जाता है। नवरात्र पूजा के दौरान तांत्रिक यहां तंत्र-सिद्धि के लिए भी जमा होते हैं।
महाभारत काल से जुड़ा है इस मंदिर का इतिहास
इस मंदिर का इतिहास महाभारत काल से भी जुड़ा बताया जाता है। ऐसी जनश्रुति है कि अंग देश के राजा कर्ण मां चंडिका के भक्त थे और हर दिन खौलते हुए तेल की कड़ाह में कूदते थे। इस प्रकार अपनी जान देकर वह मां चंडिका की पूजा किया करते थे। माता उनके इस बलिदान से अत्यंत प्रसनन हो जाती थी और हर रोज वह राजा कर्ण को जीवित कर देती थीं। इसके अलावा माता कर्ण को सवा मन सोना भी देती थीं। राजा कर्ण उस सोने को मुंगेर के कर्ण चैड़ा पर ले जाकर गरीबों में बांट देते थे।
कड़ाह के अंदर विराजमान हो गई थी मां
इस बात की जानकारी उज्जैन के राजा विक्रमादित्य को मिली। एक दिन राजा विक्रमादित्य वेश बदलकर अंग देश पहुंच गए। उन्होंने देखा कि महाराजा कर्ण ब्रह्म मुहूर्त में गंगा स्नान कर मां चंडिका के सामने रखे खौलते तेल के कड़ाह में कूद जाते हैं और माता उनके अस्थि-पंजर शरीर पर अमृत छिड़ककर उन्हें पुनर्जीवित कर देती हैं। माता उन्हें पुरस्कार स्वरूप सवा मन सोना भी देती थीं। एक दिन चुपके से राजा विक्रमादित्य राजा कर्ण के आगमन के पहले ही मंदिर पहुंच गए और खौलते तेल के कड़ाह में कूद गए। बाद में रोजाना की भांति मां ने उन्हें जीवित कर दिया। उन्होंने लगातार तीन बार कड़ाह में कूदकर अपना शरीर समाप्त किया और माता ने उन्हें हर बार जीवित कर दिया। चौथी बार माता ने उन्हें रोका और वर मांगने को कहा। राजा विक्रमादित्य ने माता से सोना देनेवाला थैला और अमृत कलश मांग लिया। ऐसी मान्यता है कि माता ने दोनों चीज देने के बाद वहां रखे कड़ाह को उलट दिया और उसी के अन्दर विराजमान हो गईं।