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Nari

बहू तो कमाऊ ही चाहिए

  • Updated: 27 Mar, 2014 05:10 PM
बहू तो कमाऊ ही चाहिए

दुनिया बदल रही है और लोग चांद पर घर बनाने जा पहुंचे हैं, भले ही सोशल नैटवर्किंग से हम इंटरनैशनल दोस्त बना लें, परंतु जब बात विवाह की आती है तो हम लोगों के सारे सिद्धांत, आधुनिकता और विकसित होने के दावे मानो खोखले से हो जाते हैं।

आज भी पराए घर से अनजान परिवेश में कदम रख रही लड़की के लिए आत्मनिर्भर और विकसित मानसिकता के बावजूद ऐसी कई बेडिय़ां हैं, जो मन से उसे नए रिश्तों को अपनाने नहीं देतीं। फिर जिंदगी भर के लिए एक गांठ उसके मन में पड़ जाती है।

छब्बीस वर्षीय सोनिका डॉक्टर है तथा अपने पेरैंट्स की तीन संतानों में सबसे बड़ी होने के कारण कॉलेज में पढ़ रहे छोटे बहन-भाई के कॉलेज की पढ़ाई का जिम्मा उसने उठा रखा है।

वह समाज की उस बदलती सकारात्मक लहर का एक सशक्त उदाहरण है, जहां लड़कियों को उनके परिजनों ने खुला आकाश उपलब्ध करवाया है और उन्हें एक स्वस्थ माहौल में बिना किसी पक्षपात के पाला है। इसलिए जब रूपेश का रिश्ता आया तो सोनिका के साथ बाकी लोग भी प्रसन्न थे। रूपेश जहां पढ़ा-लिखा, सुलझा तथा आधुनिक विचारों वाला लड़का था और एक अच्छी कम्पनी में ऊंचे पद पर कार्यरत था, वहीं उसके पिता बैंक मैनेजर और मां लैक्चरार थी। सोनिका को लगा कि उसने अपने माता-पिता के लिए जो सपने देखे हैं, वे अब भी निर्बाध पूरे हो पाएंगे लेकिन शायद यह इतना सहज नहीं था।

शादी के बाद मनाली में घूमते हुए सोनिका ने पहले ही दिन ढेर सारी शॉपिंग कर ली। अपने ससुराल के अलावा मायके वालों के लिए भी उसने कुछ न कुछ खरीदा था। लौट कर जब उसने सारे उपहार अपने सास-ससुर को दिखाए तो सोनिका की खुशी पर सास के एक वाक्य से ही  पानी फिर गया कि ‘अरे... अब अपने मम्मी-पापा के लिए ये सब लाने की क्या जरूरत है? शादी के बाद बेटी का दिया थोड़े ही न लेते हैं मां-बाप...। इसके साथ ही सब लोग हंसने लगे।

उसके बाद से सोनिका अपने पेरैंट्स के लिए बिना अपने सास-ससुर को बताए गिफ्ट तो लाती है क्योंकि उसके मन में सास-ससुर के लिए पेरैंट्स वाली भावनाएं नहीं आ पाईं कि वह उन्हेंं सब कुछ बताए। यहां तक कि वह छोटे बहन-भाई की पढ़ाई का खर्च भी चुपके से उठा रही है।

कंचन के सास-ससुर ने तो विवाह के अगले ही दिन उसके बचत खातों एवं पॉलिसीज आदि की जानकारी ले ली तथा सारा वेतन सास के हाथ में देने का आदेश दे दिया। बदलते जमाने और सोच की उसकी गलतफहमी जल्द ही दूर हो गई कि वह अपने मायके के लिए कुछ करने को आज भी स्वतंत्र नहीं है।

सोनिका और कंचनके उदाहरण महिलाओं की शादी के बाद की स्वतंत्रता और उनके लिए बदलती समाज की विचारधारा के बीच एक नया स्पीड ब्रेकर खड़ा करते हैं। जहां माता-पिता के घर में तो वे वैचारिक स्वतंत्रता, स्वनिर्णय तथा आत्मसम्मान जैसे गुण खुद में विकसित करती हैं, वहीं ससुराल जाते ही उन्हें जिंदगी से जुड़ी हर परिभाषा बनावटी लगने लगती है।

दहेज का बदलता रूप
बेहद स्वस्थ माहौल में करियर को ऊंचाइयों पर ले जाती लड़की को तब झटका लगता है, जब आॢथक रूप से स्वतंत्र होते हुए भी उसे फाइनांस से जुड़े मामले में ससुराल वालों का हर निर्णय मानने पर मजबूर होना पड़ता है। यह नए जमाने में दहेज का बदला हुआ तथा विकृत रूप है कि पढ़ी-लिखी कमाऊ लड़की के लिए समाज में सकारात्मक माहौल बनने लगा है।

लोग कामकाजी लड़की को सहर्ष बहू बनाने और उसे काम जारी रखने से भी नहीं रोकते। इसके पीछे कमाऊ बहू को दहेज की ई.एम.आई. अर्थात इक्वेटेड मंथली इंस्टॉलमैंट के रूप में भी देखने की मानसिकता नजर आती है।

ससुराल वालों का मानना है कि बहू तो कमाऊ आए, लेकिन उसके पैसों पर अधिकार उनका हो। यहां तक कि वे उससे यही अपेक्षा रखते हैं कि वह अपनी तनख्वाह हर महीने उनके हाथ में रखे और अपने खर्चों को भी ससुराल वालों से पूछ कर ही करे। साथ ही मायके वालों पर एक भी पैसा न खर्च करे।

कहां आया बदलाव
आज युवतियां हर उस क्षेत्र में अपनी दक्षता साबित कर रही हैं जहां पहले पुरुषों का वर्चस्व हुआ करता था। पढ़-लिख कर अपने पैरों पर खड़ी होती युवतियों की तादाद बढऩे से उनमें आॢथक आत्मनिर्भरता के साथ इरादों में विश्वास पैदा हुआ है, लेकिन जब ऐसी घटनाएं सुनने को मिलती हैं तो लगता है कि समाज लड़कियों के लिए कहां बदला? वह तो अब भी उन्हें अधिकार जताने की वस्तु से अधिक कुछ नहीं समझता।

पहले जब घर की आमदनी का स्रोत केवल पुरुषों के पास हुआ करता था, तब भी महिलाओं को खर्च करने के लिए उनकी अनुमति लेनी पड़ती थी। हर पैसा खर्च करने पर हिसाब देना पड़ता था। अब महिलाएं आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर हैं तब भी हालात वही हैं।

टूट जाता है रिश्ता
आर्थिक रूप से सक्षम लड़कियां भी अपने माता-पिता की इज्जत के कारण चुपचाप ऐसे अतिक्रमण बर्दाश्त कर लेती हैं परंतु जब पानी सिर से ऊपर हो जाता है तो बात रिश्ता टूटने तक आ जाती है। आर्थिक रूप से स्वतंत्र होने के बावजूद लड़कियां कई बार वैचारिक संकीर्णता के कारण टूट जाती हैं और यह सोच उन्हें अपने मायके से भी जुडऩे की इजाजत नहीं देती। नए घर के लिए भी उनके मन में कड़वाहट आ जाती है। इस तरह की बेडिय़ां जब उनके पैरों से कटेंगी तभी सही मायने में वे मशीन की अपेक्षा कमाऊ बहू बन पाएंगी।    
 

    —हेमा शर्मा, चंडीगढ़

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