लगभग हर सुबह मुझे एक जैसी दुविधाओं का सामना करना पड़ता है। मुझे उठ जाना चाहिए या अलार्म बंद करने का बटन दबा देना चाहिए? और कॉफी का पहला कप पीने से पहले भी मुझे यही दुविधा रहती है। हमारी रोजमर्रा की जिंदगी में हमें ऐसे कई तथाकथित छोटे-मोटे, बेमतलब के फैसले लेने पड़ते हैं। लोग अक्सर ऐसे मामूली फैसलों के बारे में जरूरत से ज्यादा सोचने के लिए मूर्खतापूर्ण महसूस करते हैं लेकिन अनुसंधान से पता चलता है कि इस तरह सोचने की कई तार्किक वजहें हैं।
बहुत कुछ सीखने में मिलती है मदद
इन छोटे-छोटे फैसलों से इतना तनाव महसूस करने के बारे में समझने से आपको यह सीखने में मदद मिल सकती है कि इसके बारे में क्या किया जाए। कभी-कभी ज्यादा विकल्प होने से हमें उनकी तुलना और उनमें अंतर करने में मुश्किल होती है। अर्थशास्त्र के विद्वानों ने लंबे समय तक अधिक विकल्प होने की धारणा का समर्थन किया है। लेकिन 2000 में अमेरिकी मनोवैज्ञानिक शीना आयंगर और मार्क लीपर ने इस विचार को चुनौती दी। अपने एक अध्ययन में उन्होंने एक सुपरमार्केट में जैम की जांच के लिए एक मेज लगायी। जब उपभोक्ताओं को बहुत कम विकल्प दिए गए तो जैम ज्यादा बिका। जब ग्राहकों को छह तरह के स्वाद वाले जैम का विकल्प दिया गया तो तकरीबन 30 प्रतिशत लोगों ने जैम खरीदा जबकि जब 24 तरह के स्वाद वाले जैम का विकल्प दिया गया तो केवल तीन प्रतिशत उपभोक्ताओं ने खरीदारी की।
लोगों में बढ़ जाती है बेचैनी
इन निष्कर्षों के आधार पर अमेरिकी मनोवैज्ञानिक बैरी श्वार्ट्ज ने अपनी किताब में दलील दी है कि कई विकल्प होने से लोगों की बेचैनी बढ़ सकती है। अनुसंधान में लोगों के फैसले लेने की रणनीतियों और उनके कुशलक्षेम के बीच संबंध पर ध्यान केंद्रित किया गया है। अनुसंधानकर्ताओं ने निर्णय लेने की दो प्रमुख रणनीतियों की पहचान की है : उच्चतम सीमा तक जाना (मैक्सिमाइजिंग) और संतुष्टि (सैटिसफाइसिंग)। मैक्सिमाइजिंग कई विकल्पों को खंगालना और सर्वश्रेष्ठ विकल्प का पता लगाने की प्रवृत्ति है। नोबेल पुरस्कार विजेता हर्बर्ट सिमोन द्वारा पेश किया गया शब्द संतुष्टि ऐसी रणनीति है जो स्वीकार्य विकल्प मिलने के बाद समाप्त हो जाती है।
जरूरत से ज्यादा सोचते हैं लोग
मैक्सिमाइजिंग और सैटिसफाइजिंग को व्यक्तित्व के लक्षणों से जोड़ा गया है। ऐसे लोग हैं जो उच्चतम सीमा तक जाते हैं और कुछ लोग ऐसे भी है जो संतुष्ट हो जाते हैं। मैक्सिमाइजिंग प्रवृत्ति वाले लोगों को दूसरे लोगों के अपेक्षाकृत निर्णय लेने के बाद पछतावे का अनुभव ज्यादा होता है। अध्ययन में शादी या स्वास्थ्य के बारे में जिंदगी के प्रमुख फैसलों की पड़ताल नहीं की गयी है लेकिन इसमें रोजमर्रा के फैसलों पर ध्यान केंद्रित किया गया है। 19वीं और 20वीं सदी के महान विचारकों में से एक विलियम जेम्स ने संकेत दिया कि आदतें इन जटिलताओं से निपटने में हमारी मदद करती हैं। आदतें पैदा करने में समय लगाकर आपको हर दिन के फैसलों पर विचार करने से रोका जा सकता है। हर दिन निश्चित समय पर उठना, अपनी पत्नी को चूमना और फिर कॉफी बनाना एक आदत बन गयी है जिससे मुझे इन गतिविधियों के बारे में जरूरत से ज्यादा सोचने से बचने में मदद मिली है।
(यानिव हनोच, प्रोफेसर इन डिसीजन साइंस, यूनिवर्सिटी ऑफ साउथम्पटन)