जिस तरह रात के बाद सवेरा होता है उसी तरह से बुरे दिनों के बाद अच्छे दिन जरूर आते हैं। हां जैसे रात को गुजरते हुए समय लगता है वैसे ही अच्छे दिन आने में भी समय लगता है लेकिन आपको कभी भी हार नहीं माननी चाहिए। जिस तरह बचपन में हम पीरक्षा देते थे उसी तरह हमें जिंदगी में भी परीक्षा देनी पड़ती है लेकिन इसका अर्थ यह नहीं कि हम उससे पीछे भाग जाएं और हार मान जाएं। आज हम आपको एक ऐसी ही महिला की कहानी बताने जा रहे हैं जिसने समाज में बहुत अपमान सहा लेकिन वह रूकी नहीं और उसका नाम पद्मश्री सम्मान से नवाजे जाने वाले लोगों की लिस्ट में शामिल है।
कभी मैला ढोने का किया काम
हम जिस महिला की बात कर रहे हैं वह राजस्थान की रहने वाली है। इस महिला का नाम ऊषा चौमर है। जिन्होंने कभी अपनी जिंदगी में मैला ढोने का काम किया और आज उन्हें सरकार की तरफ से पद्मश्री पुरस्कार मिलेगा। आपको बता दें कि 26 जनवरी यानि गणतंत्र दिवस की पूर्व संध्या पर पद्मश्री सम्मान से नवाजे जाने वाले लोगों की सूची जारी हुई थी जिसमें ऊषा का भी नाम शामिल है। इस सफलता पर वह बेहद खुश हैं लेकिन उनके लिए यहां तक पहुंचना आसान नहीं था।
10 साल की उम्र में हुई शादी
ऊषा का बचपन भी काफी मुसीबतों में बीता। वह जब 10 साल की थी तो उनकी शादी हो गई। ऊषा को लगा कि शायद अब उन्हें यह काम न करना पड़ा लेकिन उनके ससुराल वालों ने भी उनसे यह काम करवाया। ऊषा के पास कोई ऑप्शन नहीं था इसलिए उन्हें बिना खुशी के भी यह काम करना पड़ा।
छूते नहीं थे लोग, पानी भी दूर से देते थे
मैला ढोते समय ऊषा को गंदगी में रहना पड़ता था। जब कईं बार वह इस काम को कर के थक जाती और उन्हें प्यास लगती तो लोग उनसे दूर भागते। उन्हें दूर से ही पानी दिया जाता था ताकि उन्हें कोई छू न ले। इस तरह उन्हें पूरी जिंदगी गुजारनी पड़ी। लोग उन्हें कितना बुरा भला भी कहते थे।
2003 में आया जिंदगी में नया मोड़
मजबूरी के कारण ऊषा को यह काम करते रहना पड़ा लेकिन फिर 2003 में ऊषा बिंदेश्वर पाठक की 'नई दिशा' संस्था से जुड़ी। उनका तब जिंदगी में एक ही मकसद था कि वह मैला ढोने वाले लोगों के साथ काम करें और उनसे मिलें लेकिन कोई भी उनसे मिलने के लिए तैयार नहीं था।
अचार और जूट के थैले बनाने का काम करने लगी
इसके बाद डॉ. बिंदेश्वर पाठक ने उनकी मदद की और फिर ऊषा पापड़ और जूट, आचार और बैग बनाने लगी। ऐसा करते करते उन्होंने साल 2010 तक बहुत सी महिलाओं को अपने साथ जोड़ लिया और यह वो महिलाएं थी जो मैला ढोने का काम करती थीं।
बदलने लगा समय
इस काम को करते करते जब धीरे धीरे महिलाओं की आर्थिक स्थिती बदलने लगी तो वह महिलाएं भी मैला ढोने के काम से दूर होती गईं। आपको बता दें कि वर्तमान में वह सुलभ इंटरनेशनल की अध्यक्ष है।
157 महिलाओं को बनाया आत्मनिर्भर
मीडिया रिपोर्टस की मानें तो ऊषा अब तक तकरीबन 157 महिलाओं की जिंदगी बदल चूकी है। ऊषा की मानें तो उन्होंने अपनी जिंदगी में बहुत सारी कठिनाइयां देखी हैं। गंदगी, बदबू और लानत भरी जिंदगी देखी है लेकिन अब वह शान से जी रही हैं और वह अब तक अमेरिका और फ्रांस की यात्रा कर चुकी हैं।
प्रधानमंत्री मोदी भी कर चुके हैं सम्मानित
जैसा कि हमने बताया कि ऊषा पहले मैला ढोना का काम करती थी लेकिन इसके बाद वह स्वच्छता को बढ़ावा देने में जुट गई। इस काम के लिए उन्होंने विदेशों की यात्रा तक भी की और उन्हें पीएम मोदी की तरफ से 2015 में स्वच्छता के लिए सम्मान भी मिल चुका है। हालांकि अब उन्होंने यह काम छोड़ दिया और अब वह आचार, जूट के थेले, पापड़ आदि बनाने का कार्य करती हैं। इससे उन्होंने कईं महिलाओं को रोजगार भी दिया।
वाकई हम भी ऊषा को सलाम करते हैं।