कोरोनावायरस की जंग में जीत हासिल करने के लिए टेस्ट को एक ऐसा कदम माना जा रहा है जो हमें सफलता की ओर लेकर जा सके। विश्व स्वास्थ्य संगठन भी बार बार यही बात दोहरा रहा है। वहीं अब कोरोना की स्थिति और गंभीर होती जा रही है क्योकि जबसे रैपिड टेस्ट किट फेल हुई है तबसे कोरोना की स्थिति को खतरनाक माना जा रहा है ऐसे में विशेषज्ञ इस चीज की खोज में है कि देश में कोरोना की पहचान करने वाले और कौन से संसाधन का इस्तेमाल हो सकता है।
अगर देखा जाए तो आर टी पीसीआर ही अभी तक ऐसा टेस्ट है जो जांच की तकनीक में इस्तेमाल किया जा रहा है लेकिन दिक्कत इस जगह आ रही है कि ये टेस्ट किट, टेस्ट लेने में बेहद समय ले रहे है और दूसरी तरफ एंटीबॉडी टेस्ट का फेल होना चिंता का विषय माना जा रहा है। मुसीबत यही नही रूकती अब हमारे आस पास कई ऐसे लोग है जिनमें कोरोना के कोई भी लक्षण नही नजर आ रहे है इसी पर मेडिकल कॉउंसिल ऑफ मेडिकल रिसर्च का मानना है कि भारत में कुल 80 प्रतिशत मरीज ऐसे है।
कोरोना का इलाज ज्यादातर लक्षण दिखने के बाद ही शुरू किया जाता है लेकिन बिना लक्षण वाले मरीजों के लिए दो तरह की चुनौतियां सामने आ रही है एक तो ये कि मरीज अनजाने में अन्यों को संक्रमित कर देते है और दूसरा बड़ा खतरा की जब तक किसी में लक्षण नही दिखेंगे तब तक इलाज शुरू नही हो पाएगा। बहुत से ऐसे शहर है जहां कई ऐसे मरीज है जिनमें लक्षण नही है और उनके टेस्ट अभी भी पेंडिंग है ऐेसे में चुनौती वही आ रही है टेस्ट में समय लगना।
कोरोना के वार के बारे में हम सब जानते है कि इसका वार सीधे हमारे फेफड़ों पर पड़ता है। इन्फेक्शन के कारण फेफड़ों में जो नुकसान होता है वह बेहद जानलेवा साबित हो सकता है। फरवरी में मेडिकल जर्नल लांसेट में एक रिपोर्ट छपी जो यह दिखाती है कि जो अलाक्षणिक मरीज होते है उनके फेफड़ों में भी कोरोना वायरस के संक्रमण से नुकसान पहुंच सकता है। इसी तरह मार्च 2020 में रेडियोलाजिकल सोसायटी ऑफ़ नार्थ अमेरिका जर्नल में प्रकाशित डायमंड प्रिंसेस क्रूज शिप की केस स्टडी से पता चलता है कि कुल 104 केसेस में से 73 प्रतिशत लोग बिना लक्षण के कोरोना पोजिटिव थे और उनमे से 83 प्रतिशत के फेफड़ों में ग्राउंड ग्लास ओपेसिटी पाई गई थी, जो कि फेफड़ों में हो रहे नुकसान को दिखाता है।
अब डॉक्टर्स को ये उम्मीद थी कि आरटी पीसीआर और रैपिड एंटीबॉडी टेस्ट से इस संक्रमण को पहचाना जा सकता है लेकिन इन टेस्ट से भी संक्रमण का पता नही चल पाया ऐसे में आरटी पीसीआर की जगह एक तरीका ये अपनाया जा सकता है कि फेफड़ों का CT- स्कैन या चेस्ट एक्स - रे की किया जाए क्योंकि इससे कोरोना से हो रहे नुक़सान का पता लगाया जा सकता है।
इस साल मार्च में अमेरिकन जर्नल ऑफ रोएंटजनोलॉजी में एक रिपोर्ट प्रकाशित की गई जिसमें वुहान के 62 रोगियों पर CT-स्कैन के अध्ययन से ये पता लगा कि कोरोना की शुरूआती अवस्था में 62 लक्षण वाले रोगियों में से 52 रोगियों के फेफड़ों में ग्राउंड गलास ओपेसिटी मिली।
ग्राउंड ओपेसिटी का पता लगना इसलिए अहम है क्योंकि ये ओपेसिटी कोरोना का एक महत्वपूर्ण लक्षण है। इस स्थिति में दिया गया उपचार काफी निर्णायक सिद्ध हो सकता है। रेडियोलाजिकल सोसायटी ऑफ़ नार्थ अमेरिका के जर्नल में 26 फ़रवरी 2020 में प्रकाशित 1014 केसेस की स्टडी से साफ़ तौर पर यह परिणाम निकलते है कि चेस्ट CT, RT पीसीआर की तरह ही कोरोना वायरस के संक्रमण की पहचान के लिए इस्तेमाल किया जा सकता है। इस स्टडी में चेस्ट CT और RT पीसीआर कि डायग्नोस्टिक वैल्यू की तुलना कि गई है, यह स्टडी बताती है कि चेस्ट CT, RT पीसीआर से बेहतर है।
हाल ही में जर्नल ऑफ मेडिकल वायरोलाजी में प्रकाशित एक रिपोर्ट से पता लगता है कि RT पीसीआर के टेस्ट के तहत 21 प्रतिशत लोगों को तो कोरोना मुक्त कर घोषित कर दिया लेकिन वो बाद में फिर से कोरोना पॉजिटिव पाए गए। चेस्ट CT से ग्राउंड ग्लास ओपेसिटी का पता लगाया सकता है। ये काम डिजिटल चेस्ट एक्स रे से भी हो सकता है। देखा जाए तो इस डिजिटल एक्स-रे मशीन से चेस्ट एक्स रे करने में महज 7 मिनट का समय लगता है ऐसे में एक दिन में कितने ही सैंपल लिए जा सकते है।
एक्स - रे टेस्ट का खर्च भी कम है और इसे ओपरेट करने वाला स्टाफ पहले से ही माहिर है। इस तरीके से एक और फायदा ये है कि इससे लोगों को दूर अपने टेस्ट करवाने नही जाना पड़ेगा उनके मुहल्ले या उनके आस-पास ही ये एक्स - रे मशीन उपलब्ध हेगी जो पोर्टेबल होती है वह आसानी से उन्हे अपने आस पास मिल जाएंगी। वहीं इसके रिजल्ट भी जल्दी मिल जाते है।