दुनियाभर में इन दिनों गणेश चतुर्थी की धूम काफी देखने को मिलती है। यह महाराष्ट्र का खास त्यौहार है इसलिए यहां थोड़ी ज्यादा रौनक देखने को मिलती है। बात अगर मंदिरों की करें तो गणेश चतुर्थी के दौरान बप्पा के मंदिरों में काफी भीड़ देखने को मिलती है। मगर, आज हम आपको बप्पा के एक खास मंदिर के बारे में बताने जा रहे हैं। देश के इकलौते मंदिक में समुद्र की लहरें भी दस्तक देती हैं, जिसका इतिहास 400 साल पुराना है। चलिए आज हम आपको बताते हैं इस मंदिर से जुड़ी कुछ और खासियतें।
यह मंदिर महाराष्ट्र, कोंकण क्षेत्र में स्थित सह्याद्री पर्वत शृंखला (रत्नागिरि जिले) सागर किनारे बना हुआ है, जिसे स्वयंभू मंदिर के नाम से भी जाना जाता है। 1600 ईसा पूर्व में मंदिर की जगह पर पहाड़ों के नीचे केवड़े का बगीचा बना हुआ था।
सपने में हुए थे प्रगट
कहा जाता है कि बगीचे में बालभटजी भिड़े ब्राह्मण रहा करते थे। एक दिन गणेश जी ने उन्हें सपने में कहा कि ये पहाड़ी मेरा निराकार रूप है जो भी मनुष्य मेरी सेवा करेगा मैं उसकी सारी परेशानियां खत्म कर दूंगा। इसके बाद ब्राहम्ण बप्पा की भक्ति में जुट गए। ब्राह्मण की एक गाय थी जो दूध देना बंद कर चुकी थी।
एक दिन उस गाय के थन से अपने आप दूध निकलने लगा। इसी दौरान जब उस जगह की साफ-सफाई की गई तो वहां से वही मूर्ति निकली जो ब्राह्मण ने सपने में देखी थी। इसके बाद मंदिर का निर्माण करवाया गया।
पश्चिम द्वार देवता के रूप में होती है पूजा
मान्यता है कि यहां पर जो भी आता है इसकी सभी मनोकामनाएं पूरी होती हैं। कहा जाता है कि बप्पा गणपति पुले में स्वयं प्रकृति की गोद से जन्में थे इसलिए भगवान गणेश को पश्चिम द्वार का देवता भी माना जाता है।
मंदिर में अखंड चट्टान से बप्पा की एक मूर्ति भी बनी हुई है जो टूरिस्ट को खासतौर पर अट्रैक्ट करती है। ऐसा भी कहा जाता है कि खुद शिवाजी महाराज भी इस मंदिर में दर्शन करने गए थे।
मंदिर के बाहर 11 दीपमालाएं
कई सालों से इस मंदिर में गणेश चतुर्थी के दौरान महापूजा होती आ रही है। हजारों भक्त इस पर्व पर यहां दर्शन करने आते हैं। वहीं, बुधवार को इस मंदिर में खासतौर पर भक्तों की भारी-भीड़ होती हैं। मंदिर के बाहर 11 दीपमालाएं बनी हुई है लेकिन कोरोना के चलते दर्शकों को ऑनलाइन ही दर्शन करवाएं जा रहे हैं।