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HEE के कारण चली जाती है 60 % नवजात की जान: study

  • Edited By palak,
  • Updated: 07 Feb, 2024 11:19 AM
HEE के कारण चली जाती है 60 % नवजात की जान: study

बच्चों को लेकर एक रिसर्च सामने आई है। इस रिसर्च में एक चौंकाने वाला खुलासा किया गया है। इसके अनुसार 60% भारतीय शिशुओं की मौत ब्रेन में चोट लगने के कारण हो रही है। इसमें यह भी बताया गया है कि एक सिंपल से ब्लड टेस्ट के जरिए आसानी से चोट का पता चल सकेगा। साथ ही चोट लगने के कारण क्या है इसका भी पता लगाया जा सकता है। यह भारत में एक घातक बीमारी की स्थिति में पहुंचती जा रही है। इस रिसर्च में कई सारे कारण बताए गए जिसमें से एक कारण हाइपोक्सिक्स-इस्केमिक एन्सेफैलोपेथी (एचआईई)। इस तरह की दिमाग की चोट तब होती है जब बच्चे को जन्म से पहले या जन्म के तुरंत बाद उतनी ऑक्सीजन नहीं मिल पाती है जितनी उन्हें मिलनी चाहिए।

एचआईई(HEE) के कारण 

एचआईई की स्थिति में जन्म लेने वाले शिशुओं में मृत्यु और विकलांगता ही प्रमुख कारण माना गया है। शोधकर्ताओं का कहना है कि इसके कारण ही हर साल लगभग 3 मिलियन बच्चों प्रभावित होते हैं। यह अध्ययन ब्रिटेन के इंपीरियल कॉलेज लंदन के शोधकर्ताओं ने किया।  इस दौरान उन्होंने पाया कि जीन अभिव्यक्ति के पैटर्न जो खून के जरिए पता लगाए जा सकते हैं वही चोट के कारण का संकेत दे सकते हैं। डॉक्टरों को बता सकते हैं कि क्या नवजात शिशु का इलाज किया जा सकता है।

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ऑक्सीजन की कमी के कारण दिमाग पर गहरा असर

शोधकर्ताओं ने कहा कि ऑक्सीजन की कमी के कारण दिमाग की चोट घंटों से लेकर महीनों तक में बढ़ सकती है और दिमाग के अलग-अलग हिस्सों को प्रभावित कर सकती है। इसके कारण सिर में दर्द, मिर्गी, बहरापन या अंधापन जैसी न्यूरोडिसेबिलिटीज हो सकती है। इस रिसर्च में आगे कहा गया है कि दक्षिण एशिया और विशेष रुप से भारत में इस बीमारी का बोझ सबसे ज्यादा है। दुनिया में एचआईई से संबंधित सभी मौतों में से 60 प्रतिशत मौतें इसी देश में होती हैं। 

ब्लड टेस्ट से लगेगा चोट का कारण पता 

जीन में मौजूद साधारण ब्लड टेस्ट के कारण का पता लग सकता है। वहीं नवजात शिशुओं में कूलिंग उपचार में यह टेस्ट कितना फायदेमंद है इसकी भी जानकारी मिल सकती है। अभी मस्तिष्क की चोट के इलाज के लिए कूलिंग थेरेपी किया जाता है। अध्ययन के दौरान एलएमआईसी और एचआईसी के बच्चों को शामिल किया गया। अध्ययन के प्रो सुधीन थायिल ने कहा जांच में एलएमआईसी में रहने वाले शिशुओं के जीन पैटर्न को देखा गया वह स्लीप एपनिया वाले ही थे। इससे पता चला है कि यहां गर्भ में और जन्म के समय रुक-रुककर हाइपोक्सिया का अनुभव हुआ वहीं एचआईसी के शिशु जीन में पाया गया का भ्रूण में रक्त ऑक्सीजन के स्तर में गिरावट आई। इससे नवजातों में एचआईई का स्तर बढ़ गया। 

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पिछले अध्ययन में हुआ खुलासा 

शोधकर्ताओं के अनुसार, एचआईसी क्षेत्रों में किए गए पिछले अध्ययनों से पता चलता है कि कूलिंग थेरेपी करने से एचआईई वाले शिशुओं के परिणामों में सुधार हो सकता है। ऐसे में यह कई एचआईसी देशों में भी इस्तेमाल होने लगा है। हालांकि निम्न और मध्यम आय वाले देशों ने दिखाया कि एचआईई वाले शिशुओं को कूलिंग थेरेपी के परिणाम खराब ही होते हैं।

क्या होती है कूलिंग थेरेपी?

कूलिंग थेरेपी में नवजात शिशु को एक खास मैट पर तीन दिन तक 33 डिग्री सेंटीग्रेड पर रखा जाता है। इससे  उन्हें मस्तिष्क में लगी चोट से बचाव होता है। ऑक्सीजन की कमी के कारण शिशुओं के दिमाग की कोशिकाएं मरने लगती है। इसके बाद दिमाग की चोट घंटों से लेकर महीनों तक विकसित भी हो सकती है। यह दिमाग के अलग क्षेत्रों को प्रभावित कर सकती है।

ये कारण हो सकते हैं जिम्मेदार 

शोधकर्ताओं ने इस दौरान यह भी बताया कि इस चोट के लिए कई कारण जिम्मेदार हो सकते हैं। जैसे प्रेग्नेंसी के दौरान पुराना तनाव, खराब डाइट का सेवन, सामान्य प्रसव प्रक्रिया की जगह गर्भाश्य का छोटा हो जाना आदि। यही कारण आगे चलकर हाइपोक्सिया का कारण बनते हैं और बच्चे के दिमाग को चोट पहुंचाते हैं। 

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