आठ साल के कड़े प्रयास के बाद माइटोकॉन्ड्रियल रिप्लेसमेंट थेरेपी (MRT) के रूप में जानी जाने वाली प्रजनन तकनीक को मंजूरी देने वाला ब्रिटेन दुनिया का पहला देश बन गया है। इसके लिए अप्रैल 2023 तक "पांच से कम" बच्चों का जन्म प्रक्रिया का उपयोग हुआ है। मानव निषेचन और भ्रूणविज्ञान प्राधिकरण (HFEA ), यूके फर्टिलिटी रेगुलेटर जो मामले-दर-मामले आधार पर आईवीएफ-आधारित प्रक्रिया को मंजूरी देता है, ने हाल ही में सूचना अनुरोध की स्वतंत्रता के जवाब में इसकी पुष्टि की। फर्टिलिटी रेगुलेटर ने बच्चों के जन्म विवरण के बारे में अधिक जानकारी साझा करने से इंकार कर दिया क्योंकि इससे "उस व्यक्ति की पहचान हो सकती है जिसके लिए एचएफईए की गोपनीयता का कर्तव्य है"।
ब्रिटेन में पहली बार हुआ तीन लोगों के डीएनए से जुड़ा जन्म
ब्रिटेन में पहली बार ऐसे बच्चे को जन्म दिया गया है जिसमें तीन लोगों का डीएनए मौजूद है। इस थेरेपी को माइटोकॉन्ड्रियल रिप्लेसमेंट थियूरी का नाम दिया गया है। इस थेरेपी की खास बात यह है कि वैसे तो आम तौर पर किसी भी बच्चे में दो ही लोगों का डीएनए होता है उसके माता पिता का लेकिन इस थेरेपी के जरिए बच्चे में किसी तीसरे का डीएनए भी लाया गया है।
आखिर क्या है माइटोकोंड्रिया?
ब्रिटेन 2015 में दुनिया का पहला ऐसा देश बन गया है जिसने खराब माइटोकोंड्रिया वाली महिलाओं की मदद के तरीकों को विनियमित करने के लिए कानून लागू किया है। माइटोकोंड्रिया किसी कोशिका में ऊर्जा का स्त्रोत होता है और इसी के जरिए आनुवांशिक दोष शिशुओं तक पहुंचते हैं।
आइवीएफ के जरिए किया ट्रीटमेंट
ब्रिटेन में वैज्ञानिकों ने मां का एक ऐसा फर्टिलाइज्ड एग लिया इस एग में से खराब माइटोकोंड्रिया निकाल वहीं वैज्ञानिकों के पास एक ऐसा एग भी था जो बिना पावर हाउस का था। ऐसा ही एक तीसरा माइटोकोंड्रिया डालना ही पड़ेगा। इसके बाद मां का एग और तीसरे शख्स के माइटोकोंड्रिया को आइवीएफ तकनीक के जरिए मिलाकर मां के गर्भाश्य में प्लांट कर दिया गया ऐसे ही बच्चे में तीन डीएनए आ गए।
थ्री पैरैंट् बेबी दिया गया तकनीक को नाम
बच्चे की इस प्रक्रिया को थ्री पैरेंट बेबी का नाम दिया गया है लेकिन इसमें तीसरे शख्स का डीएनए बहुत ही कम है। तीसरे शख्स का डीएनए सिर्फ 0.2 प्रतिशत था लेकिन माता-पिता का डीएनए 99.8 फीसदी है। इस तकनीक को 2015 में मान्यता दी गई थी। वहीं 2018 में पहले केस के लिए मंजूरी मिली और वह भी सिर्फ एक ही क्लीनिक को। अभी तक 30 केस के लिए इस प्रोसेस को मान्यता मिल चुकी है ।
वहीं वैज्ञानिकों का मानना है कि इस तकनीक के जरिए माइटोकॉन्ड्रियल डिसऑर्डर से बचा जा सकता है। यह तकनीक ऐसा इंतजाम कर देगी कि बच्चे में मां की ओर से खराब माइटोकांड्रिया पहुंच ही नहीं पाएगा।