बदलते समय के साथ बुजुर्गों का मान-सम्मान घटता जा रहा है। नई पीढ़ी नई सोच के घोड़े पर सवार होकर जल्द आसमान को छूना चाहती है परिणामस्वरूप वह अपनी सभ्यता संस्कृति को भूलती जा रही है। आज बुजुर्गों को भी पुराना सामान समझा जाने लगा है और बच्चे बुजुर्गों का सम्मान करना भूल रहे हैं। वास्तविकता यह है कि पिछले दो-तीन दशकों में हमारी सामाजिक व्यवस्था व सोच में परिवर्तन आया है। समाज में न्यूक्लियर फैमिली की अवधारणा व सोच तेजी से पनप रही है।
संयुक्त परिवार प्रणाली हो रही है खत्म
संयुक्त परिवार प्रणाली धीरे-धीरे समाप्त हो रही है या यूं कहिए कि खत्म होने की कगार पर है। आज बच्चे के लिए फैमिली का अर्थ मम्मी- पापा ही है और दूसरे रिश्ते अंकल-आंटी पर ही खत्म हो जाते हैं। अपने बचपन को याद करिए। एक परिवार में औसत दस या बारह लोग हंसी खुशी से जीवन बिताते थे। ऐसे में बच्चे को रिश्ते की समझ, पहचान और उनका यथायोग्य आदर सत्कार के संस्कार घुट्टी में ही पिला दिए जाते थे और बचपन में रोपे गए संस्कारों के बीज जीवन पर्यंत उसी भावना के साथ मन में बसे रहते थे। तब संयुक्त परिवार को लोग श्रेष्ठतम समझते थे लेकिन भौतिकवादी सोच के चलते आदमी आत्म केंद्रित होता चला गया और सोसायटी में धीरे-धीरे एकल परिवार की कल्पना साकार रूप लेने लगी।
दादा-दादी को पराया समझने लगते हैं बच्चे
न्यूक्लर फैमिली में मम्मी-पापा व बच्चों के अलावा किसी दूसरे रिश्ते व रिश्तेदारों की गुंजाइश नहीं होती है। ऐसे में समाज में संस्कारहीनता का परिवेश पनप रहा है। आठ साल का शिवम अपने मम्मी-पापा के साथ अकेला ही रहता था। मम्मी पापा दोनों ही कामकाजी थे। ऐसे में शिवम की परवरिश क्रेच में ही पराए हाथों में हुई थी। साल भर में छुट्टियों के दौरान ही वह दिल्ली अपने दादा-दादी के घर जाता था। शुरू में अकेले रहने के कारण एक तो शिवम का स्वभाव रुखा था। वहीं उसे दादा-दादी, चाचा-चाची आदि रिश्तों की न तो ज्यादा समझ थी और न ही वह अपने बुजुर्ग दादा-दादी को उचित सम्मान ही दे पाता था।
दादा-दादी को वह पराया व बाहरी समझता था और उनसे वह अपने स्कूली दोस्तों के अंदाज व भाषा में बात करता था।
दादा-दादी से सामान्य व्यवहार नहीं करती करते बच्चे
दस साल की कृतिका अपने दादा-दादी व नाना-नानी के साथ सामान्य व्यवहार नहीं करती थी। उसके मन में घर के बुजुर्गों के प्रति सम्मान का भाव नहीं था। अकेले में वह अपनी मम्मी को कहती थी कि देखो दादी की स्किन कैसी लटक रही थी। दादी के चेहरे पर कितनी झुॢरयां हैं अर्थात कृतिका अपने हमजोलियों की तरह ही दादी को चिढ़ाती व उनकी नकल कर उनका अनादर करती थी। दादी जब भी प्यार से पोती को पुचकारने व सहलाने की कोशिश करती तो कृतिका मुंह बनाकर उनसे दूर चली जाती।
माता-पिता के पास नहीं है बच्चों का समझाने का समय
संयुक्त परिवारों के टूटने, माता-पिता के कामकाजी होने के कारण माता-पिता व अभिभावक बच्चों को पर्याप्त समय नहीं दे पाते हैं। आज मम्मी-पापा के पास इतना समय नहीं है कि वे दो मिनट आराम से बैठ कर बच्चे को संस्कार दे पाएं। उन्हें रिश्तों के बारे में बता पाएं और उन्हें ये समझा सकें कि इन्हीं बुजुर्गों ने हमें पाल-पोस कर बड़ा किया है। इन्हीं के कारण धरती पर हमारा अस्तित्व है और बुजुर्ग हमारी कृपा के नहीं बल्कि उचित मान-सम्मान के हकदार हैं लेकिन भागदौड़ भरी जिंदगी में किसके पास इतना समय है जो अपने बच्चों को बुजुर्गों का आदर- मान करने का सलीका सिखा पाए। ऐसा भी नहीं है कि एकल परिवारों में ही बच्चे बुजुर्गों का सम्मान नहीं करना जानते हैं।
नाना-नानी की कहानियां सुनना नहीं चाहते बच्चे
बदलती सामाजिक व पारिवारिक व्यवस्था में संयुक्त परिवारों में पलने वाले बच्चों में भी बुजुर्गों के प्रति आदर का भाव कम हुआ है क्योंकि अब बच्चे दादा-दादी व नाना-नानी की कहानियां सुनना नहीं चाहते हैं। उन्हें टी.वी. पर प्रसारित होने वाले कार्टून, कम्प्यूटर, वीडियो व मोबाइल गेम्स ही लुभाते हैं। परिणामस्वरूप स्कूल से आने के बाद बच्चे अपना ज्यादातर वक्त टी.वी. व अन्य साधनों के साथ ही बिताते हैं। उनका घर के सदस्यों से संवाद नाममात्र का या पिर काम से संबंधित रह जाता है। किसी भी रिश्ते की समझ, प्यार व मान-सम्मान तभी पैदा होता है जब उस रिश्ते के साथ रहे, उसके साथ उठे-बैठे, बातचीत करे लेकिन जब बच्चे बड़े बुजुर्गों के साथ रहते ही नहीं हैं तो उनके मन में बुजुर्गों के प्रति न तो कोई प्यार है और न ही उन्हें बुजुर्गों का मान-सम्मान पता है।
बच्चों को बुजुर्गों का सम्मान करना सिखाएं
बदलती परिस्थितियों व सामाजिक परिवेश में बुजुर्ग बेकार व फालतू समझे जाने लगे हैं। ऊपर से माता-पिता व अभिभावकों की भागदौड़ से भरपूर जिंदगी एकल परिवारों की बढ़ती संख्या, बच्चों को बुजुर्गों से दूर कर रही है। वास्तविकता यह है कि बुजुर्गों के पास अनुभव का अपार खजाना उपलब्ध है और अगर बच्चे बुजुर्गों की छत्र-छाया में अपना जीवन गुजारेंगे तो वे सभ्य संस्कृति की समझ के साथ असंख्य गुण व आदतें भी सीख जाएंगे। यह हमारी जिम्मेदारी है कि हम बच्चों को बुजुर्गों का सम्मान करना सिखाएं और उन्हें यह भी बताएं कि इस देश व उनके लिए बुजुर्ग कितने आवश्यक व मूल्यवान हैं।