खूबसूरत रंग जो किसी की भी बेरंग जिंदगी को खिला सकते हैं, ऐसे ही रंगों ने दुलारी देवी की जिंदगी को भी हरा भरा कर दिया जिसके लिए खुद दुलारी देवी ने हिम्मत और विश्वास बनाए रखा। इन्हें देखकर लगता है जिसने भी कहा है बिलकुल सच कहा है कि जिनके हौंसले बुलंद होते हैं, सफलता भी उन्हीं के पैर चूमती है। ऐसी ही संघर्ष भरी कहानी हैं मिथिला आर्टिस्ट दुलारी देवी की जिन्हें हाल ही में पद्मश्री सम्मान से नवाजा गया है।
बिहार प्रदेश के मधुबनी जिले के राठी गांव की रहने वाली दुलारी देवी मिथिला पेंटिंग के लिए पद्मश्री पाने वाली तीसरी महिला है। आज उन्हें पूरा देश सम्मान की नजरों से देखता है लेकिन ये दिन शुरू से ही ऐसे नहीं थे। जीवन के शुरूआती दिनों में दुलारी देवी ने बहुत से बुरे दिनों का सामना किया। दो वक्त की रोटी खाने के लिए घर घर जाकर बर्तन मांजे और झाड़ू पौंछा किया। इस वक्त के दौरान एक चीज जो हर समय उनके साथ रही वो थी उनका हौंसला और धैर्य जिसके दम पर आज वह प्रसिद्ध मिथिला आर्टिस्ट बन चुकी हैं।। उनके प्रयासों के दम पर ही इस अनजानी प्रतिभा को घर-घर में पहचान मिलती गई और मधुबनी आर्ट देश ही नहीं विदेश में भी प्रचलित हो गई। अब तक दुलारी देवी 7 हजार से ज्यादा मिथिला पेंटिंग्स बना चुकी हैं।
चलिए उनकी जिंदगी के कुछ शुरुआती दिनों के बारे में आपको बताते हैं....
बेहद सरल और साधारण सी दुलारी देवी का जन्म राजनगर प्रखंड के एक बेहद गरीब मछुआरा परिवार में 27 दिसंबर 1967 को हुआ था। गरीबी के चलते बहुत ही छोटी उम्र में नन्हीं दुलारी, माता-पिता के साथ मछलियाँ पकड़ने जाती थी। गरीबी थी इसलिए माता-पिता ने 12 साल की उम्र में ही उनकी शादी कर दी लेकिन गरीबी ने उनका पीछा नहीं छोड़ा। वह बेनीपट्टी के बलाईन कुसमौल गाँव में जगदेव से ब्याही गई थी और विवाह के 7 वर्ष के पश्चात 7 महीने की बच्ची की मृत्यु का दुख दिल में लिए उन्हें अपना ससुराल छोड़ना पड़ा व मायके आकर रहने लगी और यहीं से शुरू हुए दुलारी देवी के संघर्ष के दिन।
दुलारी पढ़ी-लिखी नहीं थी लेकिन पेट तो भरना था, बस घर चलाने और भूख मिटाने के लिए घर-घर जाकर 6 रु. महीने पर झाड़ू-पौंछा करने लगी। बस इसी काम के सिलसिले में वह मिथिला कलाकार के घर पर भी जाती थीं। गांव में ही काम करते-करते ही दुलारी मशहूर मिथिला पेंटर श्रीमती कर्पूरी देवी के संपर्क में आई, वह वहां झाड़ू-बर्तन ही करने जाती थी लेकिन वहां उन्हें पेंटिंग करते देख दुलारी को भी मिथिला पेंटिंग सीखने की लालसा जागी और धीरे-धीरे उन्होंने पेंटिंग सीखना शुरू कर दिया। अपने आंगन से चित्र बनाने की शुरूआत कर दुलारी ने मछुआरा समाज के जीवन ,संस्कारों और उत्सवों तथा खेतों में काम करने वाले किसान ,मजदूर और गरीबों का दुःख –दर्द को आर्ट के जरिए दर्शाया।
जब भी उन्हें कर्पूरी देवी से पेंटिंग सीखने के दौरान समय मिलता है तो अपने घर में लकड़ी से ब्रश बनाकर और मिट्टी की मदद से वह पेंटिंग में जुट जाती थी। इसी तरह कर्पूरी देवी की सहायता से दुलारी ने मिथिला पेंटिंग की अच्छी जानकारी हासिल की और कब झाड़ू की जगह हाथों में पेंटिंग ब्रश ने जगह बना ली दुलारी को भी नहीं पता चला। उनकी मिथिला पेंटिंग्स इतनी प्रचलित हुई कि एक बार पूर्व राष्ट्रपति स्वर्गीय श्री एपीजे अब्दुल कलाम द्वारा इनको बहुत प्रोत्साहित किया गया था।
दुलारी देवी की कला इतनी प्रचलित हुई कि गीता वुल्फ की पुस्तक ‘ फॉलोइंग माइ पेंट ब्रश ‘मैं दुलारी देवी की जीवनी एवं कलाकृतियों को स्थान मिला। मार्टिन लि कॉज की फ्रेंच में लिखी पुस्तक मिथिला में भी दुलारी देवी जी की जीवन कथा एवं पेंटिंग्स को शामिल किया गया है।सतरंगी नामक पुस्तक में भी इनकी पेंटिग ने जगह पाई है।
इसके अलावा पटना में बिहार संग्रहालय के उद्घाटन के अवसर पर मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने दुलारी देवी को विशेष तौर पर आमंत्रित किया। इस आयोजन में दुलारी देवी जी द्वारा बनाई गई एक पेंटिंग जिसमें कमला नदी के पूजन का दृश्य है उसको विशेष स्थान दिया गया। 2012-13 में दुलारी राज्य पुरस्कार से सम्मानित हो चुकी हैं।
तो यह थी 53 साल की दुलारी देवी के संघर्ष की कहानी जो यही प्रेरणा देती हैं कि संघर्ष कितना भी लंबा क्यों ना हो व्यक्ति अपनी मेहनत और लगन से उसे पार कर जाता है। संघर्ष की दीवार उसे मंजिल पाने से रोक नहीं सकती।