बड़ी संख्या में महिलाएं सेनाओं में अग्रिम मोर्चे पर लड़ाकू भूमिकाएं निभा रही हैं और यूक्रेन पर रूस के एक साल से जारी हमले में अहम जिम्मेदारियां उठा रही हैं, लेकिन ऐसा हमेशा से नहीं रहा है। पुरुषों के लिए उपलब्ध सभी सैन्य भूमिकाएं पिछले साल ही महिलाओं के लिए खोली गईं। लिंग-समावेशी सुधारों ने 2018 में महिलाओं को सशस्त्र बलों में पुरुषों के समान कानूनी दर्जा दिया और यूक्रेन में 450 विभिन्न कार्यों के लिए महिलाओं पर लगाए गए प्रतिबंध समाप्त किए गए। सेना में युद्ध समेत अन्य क्षेत्रों में महिलाओं एवं लड़कियों को पुरुषों के समान ही खतरों का सामना करना पड़ता है, लेकिन महिलाओं को यौन हिंसा, मानव तस्करी और मातृ मृत्यु जैसी कई लिंग आधारित समस्याओं से भी जूझना पड़ता है।
केवल पीड़ित नहीं हैं महिलाएं
लैंगिक मुद्दों पर संयुक्त राष्ट्र के महासचिव के विशेष सलाहकार का अनुमान है कि हाल के संघर्षों में गैर-लड़ाकू अभियानों में हताहत हुए लोगों में 70 प्रतिशत महिलाएं हैं। संयुक्त राष्ट्र ने शांति स्थापना प्रक्रियाओं में महिलाओं की भागीदारी की आवश्यकता और वैश्विक शांति एवं स्थिरता में उनकी भूमिका के महत्व को पहचानते हुए 2000 में महिला, शांति एवं सुरक्षा पर ऐतिहासिक सुरक्षा परिषद संकल्प 1325 को अपनाया था। इसमें यह भी स्वीकार किया गया कि महिलाएं केवल पीड़ित नहीं हैं, बल्कि शांति स्थापना, वार्ताकार और शांतिदूत के रूप में सक्रिय भागीदार हैं। हालांकि एक दशक से एक समय बाद भी यह प्रस्ताव उम्मीद पर खरा नहीं उतर पाया।
महिलाओं को लेकर सोच बदलने की जरुरत
महिलाओं के खिलाफ हिंसा की समस्या बरकरार है और शांति स्थापना एवं उसे बरकरार रखने में उनकी पूर्ण भागीदारी में सांस्कृतिक एवं सामाजिक बाधाएं हैं। अफगानिस्तान में पुराने पितृसत्तात्मक मानदंडों और सोच ने महिलाओं के समग्र विकास और किसी भी रचनात्मक गतिविधि में उनकी भागीदारी के लिए महत्वपूर्ण चुनौतियां पेश की हैं। बांग्लादेश के बीआरएसी विश्वविद्यालय में पढ़ रही एक अफगान छात्रा ने कहा कि अफगानिस्तान में लोगों का मानना है कि एक महिला का जन्म केवल बच्चे पैदा करने और उनकी एवं अपने पति की देखभाल करने के लिए होता है। उसने कहा कि इसके बावजूद कई महिलाएं शांति प्रयासों के लिए काम करती हैं, लेकिन वे यह आम तौर पर गुप्त रूप से करती हैं। उसने कहा, ‘‘मैंने भी यूएनएचआरसी (शरणार्थियों के लिये संयुक्त राष्ट्र उच्चायुक्त कार्यालय) के लिए एक शिक्षक के रूप में काम किया था।''
बाधाओं से भरा है महिलाओं का रास्ता
बांग्लादेश के बीआरएसी विश्वविद्यालय में शांति एवं न्यायालय केंद्र के मंजूर हसन और अराफ़ात रज़ा ने बताया कि 2005 और 2020 के बीच अफगानिस्तान में लगभग 80 प्रतिशत शांति वार्ताओं में महिलाओं को शामिल नहीं किया गया और 67 में से केवल 15 बैठकों और वार्ताओं में महिलाओं ने भाग लिया। उन्होंने कहा कि महिलाओं की शिक्षा तक सीमित पहुंच है और उन्हें पितृसत्तात्मक मानसिकता के कारण निर्णय लेने की प्रक्रियाओं से जानबूझकर बाहर रखा जाता है। ऐसे में यह हैरानी की बात नहीं है कि शांति स्थापना और संघर्ष की रोकथाम में कोई सार्थक योगदान देने का महिलाओं का मार्ग अनगिनत बाधाओं से भरा है। अफगान महिलाओं ने कुछ स्थानीय और अंतरराष्ट्रीय संगठनों की मदद से हिंसा को रोकने और शांति स्थापित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है।
महिलाओं की समान भागीदारी महत्वपूर्ण
वे शिक्षा और शांति के महत्व एवं महिलाओं के अधिकारों को लेकर जागरुकता फैलाने और चरमपंथी सोच का मुकाबला करने समेत कई प्रयासों में शामिल हैं, लेकिन तालिबान की सत्ता में वापसी से कई महिलाओं को इनमें भागीदारी से डर लगने लगा है। शोध से पता चलता है कि महिला संगठनों सहित नागरिक समाज संगठनों की उपस्थिति से शांति समझौतों के विफल होने की आशंका 64 प्रतिशत तक कम हो जाती है, लेकिन संयुक्त राष्ट्र जैसे प्रमुख वैश्विक शांति संगठनों में इस दिशा में अब भी प्रगति नहीं हुई है। मोनाश विश्वविद्यालय में लेक्चरर एलेनोर गॉर्डन ने कहा कि महिलाएं अपने बच्चों की देखभाल संबंधी जिम्मेदारियों के बारे में इस डर से बात करने से कतराती हैं कि उन्हें गैर-पेशेवर या कम प्रतिबद्ध माना जाएगा। उन्होंने कहा कि दूसरी ओर, जब वे इस क्षेत्र में काम करने का फैसला करती हैं, तो उन्हें कई बार ऐसी मां समझा जाता है जिसे अपने ‘मूल दायित्वों' का भान नहीं है। राष्ट्रीय आधार पर मजबूत लोकतंत्र के निर्माण और उसे बनाए रखने के लिए सार्वजनिक जीवन में महिलाओं की पूर्ण और समान भागीदारी महत्वपूर्ण है, लेकिन संयुक्त राष्ट्र के अनुसार, संघर्ष-प्रभावित देशों या संघर्ष से उबर रहे देशों की संसद में महिलाओं का प्रतिनिधित्व 21 प्रतिशत से कम है।