भारत के इतिहास पर नजर दौड़ाई जाए तो असंख्य राजाओं और रानियों के नाम सामने आ जाएंगे। जिस देश में घर का मुखिया पिता और राष्ट्र का मुखिया राजा होता था, वहां कुछ ऐसी राजकुमारियां भी आईं जिन्होंने समाज से लड़कर अपनी एक अलग पहचान बनाई। आज हम आपको ऐसी ही एक रानी की कहानी बताने जा रहे हैं , जिन्हे 'विद्रोही रानी,' 'द मिसालिना ऑफ़ पंजाब' और 'द क्वीन मदर' जैसे नामों से याद किया जाता है।
महाराजा रणजीत सिंह की सबसे छोटी पत्नी थी जिन्द कौर
हम बात कर रहे हैं सिख साम्राज्य के महाराजा रणजीत सिंह की ख़ूबसूरत पत्नी महारानी जिन्द कौर की, जिन्हें ' रानी जिन्दां' भी कहा जाता था। सिखों के शासनकाल में पंजाब के लाहौर की अंतिम रानी की प्रसिद्धि से अंग्रेज भी डरते थे। रानी जिंदा कौर का जन्म सियालकोट रियासत के गांव चॉढ, जो अब पाकिस्तान में है 1817 में हुआ। इनके पिता सरदार मन्ना सिंह औलख कुत्तों की रखवाली किया करते थे उन्होंने महाराजा रणजीत सिंह से अपनी बेटी को पत्नी के रूप में स्वीकार करने का अनुरोध किया था। महाराजा रणजीत सिंह ने 1835 में जिंदा कौर को अपनी पत्नी के रूप में स्वीकार किया।
महारानी ने अपनाई कठोर नीतियां
कहा जाता है कि जिंदा कौर महाराज की सभी पत्नियों में बेहद खूबसूरत थीं। शादी के बाद उन्होंने एक पुत्र को जन्म दिया, जिनका नाम दिलीप सिंह रखा गया। महाराज की मौत के बाद उनकी जिंदगी तहस- नहस हो गई, ऐसी हालत में भी उन्होंने हार नहीं मानी। उन्होंने पति की मृत्यु के बाद पंजाब का शासन ही नहीं संभाला, बल्कि अंग्रेजों के खिलाफ कठोर नीतियां भी अपनाई। महाराजा दलीप सिंह के पंजाब का राज्यभार संभालने के करीब दो साल बाद 1845 ई. में प्रथम सिख-एंग्लो युद्ध छिड़ गया। युद्ध के दौरान रानी ज़िन्दा कौर ने अंग्रेजों के विरुद्ध कई ठोस कदम उठाये ।
अंग्रेजीं सरकार भी खाती थी उनसे खौफ
जिंदा कौर के सैन्य बल को देखकर अंग्रेजीं सरकार भी उनसे खौफ खाने लगी थी। वह 1846 में सिखों और अंग्रेजों के बीच पहली लड़ाई में सिखों की हार के बाद ब्रिटिश कैद से एक नौकरानी का वेश धरकर फ़रार हो गई थी। जिन्द कौर तो वहां से निकल गई लेकिन उनका बेटा अंग्रेजों के हाथ में आ गया। नौ साल की उम्र में दिलीप सिंह को क्वीन विक्टोरिया के पास रहने के लिए भेज दिया गया थ, जहां वे ईसाई हो गए और 'ब्लैक प्रिंस' के नाम से मशहूर हुए। उन्होंने अपने बेटे से मिलने के कई प्रयास किए लेकिन वह हर बार असफल रही। महारानी ने राजकुमार को बहुत से खत भी लिखे जिनमे उनकी ममता और प्यार की झलकिया देखने को मिलती है।
बेटे के लिए किया लंबा इंतजार
जिन्द कौर ने नेपाल में 11 साल तक निर्वासित जीवन बिताया और इस दौरान उनका अपने बेटे के साथ कोई संपर्क नहीं था। महारानी जिंदा अपने बेटे से दूर होने की वजह से कितना उदास थी वह उन्होंने अपने पत्रों में बयान किया है। एक लंबे समय के बाद दोनों मां और बेटे की मुलाकात हुई। हालांकि उस समय वह अपने जीवन के अंतिम पढ़ाव पर थीं, वो एक आँख से नेत्रहीन भी हो चुकी थी। आखिर के दिनों में उन्होने अपने बेटे के साथ कुछ वक़्त बिताया और सन 1863 में महारानी जिंदा कौर ने इंग्लैंड में ही अंतिम सांसे ली। महाराज दिलीप सिंह उनका अंतिम संस्कार पंजाब में करना चाहते थे, मगर पंजाब में उनके अंतिम संस्कार की अनुमति नहीं दी गई । इसके बाद गोदावरी नदी के तट पर उनका अन्तिम संस्कार किया गया।