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आजादी  के बाद की वो डरावनी और दर्दनाक शाम

  • Edited By vasudha,
  • Updated: 15 Aug, 2023 11:41 AM
आजादी  के बाद की वो डरावनी और दर्दनाक शाम

बात 75-76 वर्ष पुरानी है। कई सौ वर्षों के मुगल और ब्रिटिश शासन से हमारे देश भारतवर्ष की स्वतंत्रता का पहला दिन। राजधानी दिल्ली का एक क्षेत्र दरियागंज। वहां मेन रोड के साइड वाली लेन का नाम फैज बाजार। उसमें एक बाटा की दूकान, ऊपर 4 नंबर का मकान जिसमें जयपुर की एक सम्मानित कासलीवाल फैमिली के एक बेटे तोष कासलीवाल सपरिवार रहते थे जो कि मेरे जीजा जी थे। जीजा जी सदा शुद्ध खादी पहनने वाले कांग्रेसी थे। उस समय मेरी आयु लगभग 13 वर्ष थी। साथ में छोटा भाई जिसकी आयु 9.5 वर्ष थी।


हमारा घर दक्ष प्रजापति की नगरी कनखल (हरिद्वार) में था। हम दोनों बहन जी के पास 4-5 दिन रहने के लिए आए थे। वापिस कनखल जाना था लेकिन हमें तो यहीं रूकना पड़ा वह भी अनिश्चित काल के लिए। कारण यह हुआ कि स्वतंत्रता मिलने के साथ 2 राजनीतिक और सामाजिक उथल-पुथल ऐसी हुई कि कहीं भी आना-जाना संभव नहीं रहा। हम दोनों बच्चे क्या करते? बार रोना आ रहा था। मैं छोटे भाई को पुचकारती रहती और कहती कि 2-3 दिन में बसें चलनी शुरू हो जाएंगी। तब मां के पास चलेंगे... इत्यादि समझाती रहती।

सड़क की तरफ दो बरान्डे थे जिनसे नीचे की सड़क पर चलते लोग और गाड़ियां आदि दिखती रहती थीं। हम दोनों बार-बार वहीं आकर खड़े हो जाते थे और सड़क की तरफ देख कर मन बहला लेते थे। अचानक क्या हुआ कि सड़क पर सन्नाटा सा होने लगा। साइकिल, रिक्शा, पैदल, गाड़ी सब बन्द होने लगे। धीरे-धीरे पुलिस की गाड़ी दिखने लगीं। समझ नहीं आया कि क्या हुआ। धीरे-धीरे नीचे का दृश्य बदलने लगा। कुछ पुलिस की गाड़ियां घूम रहीं थी कुछ ट्रक निकल रहे थे।


 हमने तो अब तक ट्रकों में गेहूं, चावल, चीनी आदि के बोरे ही देखे थे क्योंकि आड़ती लोग यही काम करते थे। यहां तो ट्रकों में कुछ और ही डरावना दृश्य था। एक गाड़ी खराब हो गई तो नीचे खड़ी हो गई। हम दोनों बार-बार आकर देखते कि इसमें क्या है। देखकर आंखे बन्द कर लेते फिर खोलते। कोई तमाशा तो नहीं था फिर भी देख रहे थे। सब कुछ डरावना और दर्दनाक सा था। कभी ऐसा सोचा भी न होगा। ट्रक में लाइन से लाशें पड़ी हुईं थीं। आड़ी तिरछी एक के ऊपर एक। स्त्री-पुरूष, बच्चों का कुछ पता नहीं था कोई कपड़े पहने, कोई अर्धनग्न, किसी का हाथ कटा तो किसी का पैर। रक्त की लाली आंखों में खटक रही थी। शायद लोग सब मरे हुए थे या किसी में सांस भी चल रही हो। कोई-कोई स्त्री ऐसी दिखी कि पूरे वस्त्र शरीर पर नहीं हैं। 75-76 वर्ष पूर्व की यह पिक्चर लगता है कि आंखों के सामने अभी भी है क्योंकि उस समय मन पटल पर सब कुछ छप सा गया था।


पाकिस्तान का स्वतंत्रता दिवस 14 अगस्त 1947 को हुआ था। वहां उसी समय सुना था कि नरसंहार शुरू हो गया था। वहां से हिन्दु लोगों ने भागना आरम्भ किया। इसलिए बुरी तरह ट्रेनों में अपनों को ठूस-ठूस कर लोग भारत की सीमा में पहुंचे। आते-आते भी समय लगा। सुन्दर लड़कियों और स्त्रियों को लाना कठिन हो गया था। जो स्त्रियां वहां मुसलमानों के घरों में रह गईं वो फिर उनकी पत्नी बनकर रहती रहीं और अपना जीवन बिता दिया। जो जिसके भाग्य में था उसने वही झेला। कोई नारी गर्भवती, किसी का 2 दिन का बच्चा, कोई बीमार आदि विकट परिस्थिति हो गई थी। सब लोग अपनी दुकान, मकान, रुपया पैसा कुछ भी नहीं ला पाए। बस घर में रखा रुपया और सोना ही आ सका।


शाम के समय नए नियुक्त हुए प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू का भाषण आया जिसको जीजा जी और उनके मित्र सादिक अली ने बड़े ध्यान और शौक से सुना। पंडित ने हरू और जिन्ना इंगलैंड में साथ-साथ पढ़ते थे। उनकी मित्रता थी। अतः देश के तीन टुकड़े हो गए। वेद-उपनिषद, बुद्ध, राम, कृष्ण और संतमहात्माओं का यह आर्यावर्त भारत कभी एशिया और पूर्वी यूरोप के प्रदेशों पर अपना प्रभाव रखता था। इंडोनेशिया में आज भी रामलीला के नाटक खेले जाते है। इनकी बातें मुझे कुछ-कुछ समझ आ रही थी। जीजा जी बोले कि हमारे प्रधान मंत्री को सुनिए कह रहे हैं कि "आखिर क्या चाहते है आप" इत्यादि प्रधानमंत्री ने इसलिए कहा कि हिन्दुओं ने भी बदले में कुछ मारा-काटी शुरू कर दी थी।

इस बीच गोलियों की आवाजें आने लगीं। हमारे घर के एक तरफ खाली जगह थी सुरक्षित नहीं थे। थोड़ी देर में ही जीजा जी, उनके मित्र और हम सब सामने की बिल्डिंग में एक परिवार में पहुंच गए। उनके साथ खाना खाया। मिलजुल कर रात बिताई। घर के बड़े लोग तो कांग्रेस, गांधी, नेहरू, पटेल, आजादी, सुभाष बोस, मंगल पांडे, सन 57 आदि की ही बातें करते रहे बच्चें यह सब कुछ समझ नहीं पा रहे थे। बस रात हो गई सबने सोने का प्रयास किया। इस प्रकार मेरी वह शाम बीती जिसकी कुछ-कुछ पिक्चर अभी भी मस्तिष्क में चल रही है। अतः तो यही कामना है कि पुरानी बातों की पुनरावृत्ति न हो। हम सब समान हैं। इस देश में हमारा एक मंत्र माना जाता है ‘‘वसुधैव कुटुम्बकम्‘‘। अपने देश के उत्थान के लिए जो भी प्रयास हो सकेंगे वह किए जाएंगे यही हमारा ध्येय है।

 उषा गुप्ता (89 वर्ष)

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