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यहां बिना रावण दहन के मनाया जाता है दशहरा, इस उत्सव को देखने देवलोक से आते हैं देवी-देवता !

  • Edited By vasudha,
  • Updated: 12 Oct, 2024 05:05 PM
यहां बिना रावण दहन के मनाया जाता है दशहरा, इस उत्सव को देखने देवलोक से आते हैं देवी-देवता !

नारी डेस्क: कुल्लू का दशहरा  हिमाचल प्रदेश का एक विश्व प्रसिद्ध त्योहार है, जिसे भारत और दुनियाभर के लोग देखने आते हैं। यह दशहरा अन्य जगहों से थोड़ा अलग तरीके से मनाया जाता है, और इसकी कई विशेषताएं इसे खास बनाती हैं। आइए जानते हैं कि कुल्लू का दशहरा इतना फेमस क्यों है, इसकी खासियत क्या है, और यह कितने दिन तक चलता है:

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कुल्लू दशहरा की खासियत

कुल्लू दशहरा भगवान रघुनाथ (श्री राम)  की पूजा के साथ शुरू होता है। इसे राजा जगत सिंह  ने 17वीं शताब्दी में शुरू किया था, जब उन्होंने भगवान रघुनाथ की मूर्ति कुल्लू में स्थापित की थी। राजा के आदेश के बाद से, कुल्लू का दशहरा भगवान रघुनाथ को समर्पित एक विशेष आयोजन बन गया। कुल्लू का दशहरा 7 दिनों तक चलता है। यह विजयादशमी के दिन से शुरू होता है, जबकि भारत के बाकी हिस्सों में दशहरा समाप्त हो जाता है। इस उत्सव में कुल्लू की घाटी के विभिन्न गांवों से देवताओं की शोभायात्रा निकाली जाती है।

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देवताओं का मेला 

 कुल्लू घाटी के हर गांव में एक लोक देवता होता है, और इस दशहरे के दौरान 200 से अधिक देवी-देवता अपने-अपने गांवों से रथ यात्रा के माध्यम से कुल्लू के ढालपुर मैदान में एकत्र होते हैं। यह नजारा बहुत ही दिव्य और अलौकिक होता है, जिसे देखने के लिए हजारों लोग यहां आते हैं।दशहरा के दौरान  भगवान रघुनाथ की रथ यात्रा निकाली जाती है, जिसमें हजारों भक्त भाग लेते हैं। यह शोभायात्रा ढालपुर मैदान में आयोजित होती है, जहां लोग रंग-बिरंगे वस्त्र पहनकर इसमें हिस्सा लेते हैं। यह उत्सव एक सामाजिक और धार्मिक समागम का प्रतीक है।

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यहां नहीं होता रावण दहन 

कुल्लू के दशहरे की एक अनूठी विशेषता यह है कि यहां रावण दहन नहीं किया जाता । अन्य जगहों की तरह रावण, मेघनाद और कुंभकर्ण के पुतले जलाने की परंपरा यहां नहीं है। इसकी बजाय, यह भगवान राम और अन्य देवी-देवताओं की पूजा का पर्व है। कुल्लू दशहरा को 1972 में अंतर्राष्ट्रीय स्तर  पर मान्यता मिली और इसे अंतर्राष्ट्रीय दशहरा उत्सव  के रूप में मनाया जाता है। अब यह एक ऐसा आयोजन बन गया है जिसमें न केवल भारत से, बल्कि दुनिया के विभिन्न हिस्सों से लोग भाग लेने आते हैं।

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लोक संगीत और नृत्य

इस उत्सव में हिमाचल के पारंपरिक लोक संगीत और नृत्य का भी विशेष आयोजन होता है। लोग पारंपरिक परिधानों में नाचते-गाते हैं और विभिन्न सांस्कृतिक कार्यक्रमों का आनंद लेते हैं। कुल्लू घाटी के कलाकार अपने नृत्य और संगीत का प्रदर्शन करते हैं, जो स्थानीय संस्कृति को प्रदर्शित करता है। दशहरे के दौरान कुल्लू में एक बड़ा **व्यापारिक मेला** भी लगता है, जिसमें देशभर से व्यापारी आते हैं और हस्तशिल्प, कपड़े, आभूषण, और अन्य पारंपरिक वस्तुओं की बिक्री करते हैं। यह मेला स्थानीय और अंतर्राष्ट्रीय व्यापारियों के लिए एक बड़ा अवसर होता है।

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कुल्लू दशहरा का इतिहास

कुल्लू दशहरा का इतिहास 17वीं शताब्दी  से जुड़ा है, जब कुल्लू के राजा जगत सिंह ने भगवान रघुनाथ को कुल्लू के देवता के रूप में स्थापित किया। कहा जाता है कि राजा को एक साधु ने भगवान रघुनाथ की मूर्ति लाने का निर्देश दिया था। इसके बाद से कुल्लू में हर साल भगवान रघुनाथ की पूजा और रथ यात्रा का आयोजन किया जाने लगा, जो अब एक बड़ा त्योहार बन गया है। कुल्लू का दशहरा अपने धार्मिक, सांस्कृतिक और सामाजिक महत्व के कारण विश्व प्रसिद्ध है। यह 7 दिनों तक चलने वाला उत्सव है जिसमें स्थानीय देवी-देवताओं की शोभायात्रा, पारंपरिक संगीत-नृत्य, और मेलों का आयोजन होता है।

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