नारी डेस्क: पूर्व प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह के अंतिम संस्कार के दौरान उनकी बेटी उपिंदर सिंह ने चिता को मुखाग्नि दी। यह घटना न केवल उनके परिवार के प्रति उनकी श्रद्धा को दर्शाती है, बल्कि सिख परंपरा की एक महत्वपूर्ण विशेषता को भी उजागर करती है, जो लिंग भेदभाव को अस्वीकार करती है।
सिख परंपरा में समानता का संदेश
सिख धर्म में महिलाओं और पुरुषों के बीच कोई भेदभाव नहीं किया जाता। सिख परंपरा के अनुसार, अंतिम संस्कार के दौरान चिता को मुखाग्नि देने का कार्य केवल पुरुषों तक सीमित नहीं है। यह कर्तव्य परिवार के किसी भी सदस्य द्वारा किया जा सकता है, चाहे वह महिला हो या पुरुष।
महिलाओं की भागीदारी का लंबा इतिहास
सिख समुदाय में यह परंपरा लंबे समय से चली आ रही है कि महिलाएं अपने माता-पिता के अंतिम संस्कार से जुड़े सभी संस्कार निभा सकती हैं। यह समानता और स्वतंत्रता का एक आदर्श उदाहरण है, जिसे सिख धर्म ने हमेशा से बढ़ावा दिया है।
उपिंदर सिंह का कदम
डॉ. मनमोहन सिंह की बेटी उपिंदर सिंह का अपने पिता की चिता को मुखाग्नि देना, समाज में सिख धर्म के इस सिद्धांत को दोबारा उजागर करता है। उन्होंने न केवल अपने पिता को विदाई दी, बल्कि इस कार्य के माध्यम से सिख धर्म की लैंगिक समानता की विचारधारा को भी प्रकट किया।
सिख धर्म में लैंगिक समानता का महत्व
सिख धर्म के संस्थापक गुरु नानक देव जी ने भी महिलाओं और पुरुषों को समान अधिकार दिए जाने पर जोर दिया था। उन्होंने महिलाओं को पुरुषों के बराबर माना और समाज में उनकी भूमिका को महत्व दिया।
समाज को संदेश
इस घटना से समाज को यह संदेश मिलता है कि परंपराओं को निभाने में लिंग के आधार पर कोई भेदभाव नहीं होना चाहिए। यह घटना न केवल सिख समुदाय के लिए, बल्कि पूरे समाज के लिए प्रेरणादायक है।
डॉ. मनमोहन सिंह के अंतिम संस्कार में उनकी बेटी द्वारा निभाई गई यह भूमिका सिख धर्म की महान परंपराओं और समानता के सिद्धांतों को सम्मानित करती है। यह घटना उन सभी लोगों के लिए एक प्रेरणा है जो अब भी लैंगिक भेदभाव से ग्रस्त हैं।