देश और दुनिया के इतिहास में वैसे तो कई महत्वपूर्ण घटनाएं 23 मार्च की तारीख पर दर्ज हैं....लेकिन भगत सिंह और उनके साथी राजगुरु और सुखदेव को फांसी दिया जाना भारत के इतिहास में दर्ज इस दिन की सबसे बड़ी एवं महत्वपूर्ण घटनाओं में से एक है। इस दिन भारत मां के इन तीन वीर सपूतों ने हंसते-हंसते देश के लिए अपनी जान दे दी। आज शहीदी दिवस पर जानते हैं उनकी शहादत से जुड़ी कुछ अहम बातें।
भगत सिंह का बढ़ गया था वजन
कहते हैं 1 साल और 350 दिनों में जेल में रहने के बावजूद, भगत सिंह का वजन बढ़ गया था, खुशी के मारे। खुशी इस बात की कि अपने देश के लिए कुर्बान होने जा रहे थे। फांसी पर जाते वक्त वह, सुखदेव और राजगुरु 'मेरा रंग दे बसंती चोला' गाते जा रहे थे और फांसी पर चढ़ते वक्त भगत सिंह के चेहरे पर मुस्कुराहट थी।
मौत को बनाया था दुल्हन
जब भगत सिंह के माता-पिता ने उनकी शादी करवाने की कोशिश की तो वह यह कहते हुए घर से चले गए कि अगर उन्होंने गुलाम भारत में शादी की तो "मेरी दुल्हन केवल मौत होगी"। इसके बाद वह हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन में शामिल हो गए।
एक दिन पहले दी फांसी
बताया जाता है कि भगत सिंह, सुखदेव थापर और शिवराम राजगुरु को 24 मार्च की सुबह फांसी देने की सजा सुनाई दी गई थी लेकिन पूरे देश में जनाक्रोश को देखते हुए एक दिन पहले 23 मार्च 1931शाम को चुपचाप फांसी दे दी गई थी।
कैदियों के लिए की भूख हड़ताल
बताया जाता है कि जेल में रहने के दौरान भगत सिंह जे विदेशी मूल के कैदियों के लिए बेहतर इलाज की नीति के खिलाफ भूख हड़ताल पर चले गए। 7 अक्टूबर 1930 को उनकी मौत की सजा सुनाई गई, जिसे उन्होंने हिम्मत के साथ सुना।
फांसी से पहले पढ़ी किताब
भगत सिंह ने जेल में कई किताबें पढ़ीं। जब उन्हें फांसी के लिए ले जाया जा रहा था तो वह बोले- "ठहरिये, पहले एक क्रन्तिकारी दूसरे क्रांतिकारी से मिल तो ले."। उन्होंने अगले एक मिनट तक किताब पढ़ी फिर किताब बंद कर उसे छत की और उछाल दिया और बोले, "ठीक है, अब चलो."।
मजिस्ट्रेट नहीं हो रहे थे तैयार
कहा जाता है कि कोई भी मजिस्ट्रेट भारत माता के वीर सपूतों की फांसी की निगरानी करने को तैयार नहीं था। मूल मृत्यु वारंट समाप्त होने के बाद यह एक मानद न्यायाधीश था जिसने फांसी पर हस्ताक्षर किए और उसकी निगरानी की।