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“जिनका पेट भरा है वो हमारी भूख नहीं समझेंगे” कम वेतन में काम कर रही आशा कार्यकर्ता

  • Edited By Anjali Rajput,
  • Updated: 08 Feb, 2022 06:34 PM
“जिनका पेट भरा है वो हमारी भूख नहीं समझेंगे” कम वेतन में काम कर रही आशा कार्यकर्ता

“जिनका पेट भरा है वो हमारी भूख नहीं समझेंगे”  बातचीत के दौरान ये कहना था ज़िला रायबरेली की एक आशा कार्यकर्ता का। ग्रामीण उत्तर प्रदेश के दूर-दराज के इलाकों में जहां बुनियादी स्वास्थ्य सुविधाओं की कमी है, आशाकार्यकर्ता कोरोनो वायरस के खिलाफ लड़ाई में सबसे आगे रहीं हैं।

कम वेतन में काम कर रही आशा कार्यकर्ता

उषा देवी कहती हैं “हमसे जितना काम लिया जाता है, उसका अगर 10000 रुपए भी न बने तो बेकार है, यहां तो समय से 3000 रुपए देने में भी मुश्किल आती है। ये अकेली हमारी समस्या नहीं है हम अपनी सब बहनों की तरफ से बोल रहे हैं"। आशा ग्रामीण भारत में रक्षा की अग्रिम पंक्ति की कार्यकर्ता है। कोरोना महामारी के दौरान ग्रामीणों का सर्वेक्षण करने और उनके स्वास्थ्य की निगरानी करने का काम करने वाली, उत्तर प्रदेश के आशा कार्यकर्ता प्रति माह 2,200 रुपए की मामूली राशि के बदले में हर दिन अपनी जान जोखिम में डालती हैं।

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लोग देते हैं गालियां

आशा माधुरी देवी कोरोना की दूसरी लहर को याद करती हैं तो आज भी डर सी जाती हैं, “फील्ड से हम घर वापिस आते थे तो बच्चों को अपने से दूर रखते थे, पूरे परिवार को भय था के हम से हमारे परिवार में किसी को ये बीमारी न हो जाए, पूरे गांव में जैसे डर का माहौल था, गांव के लोग हमें देखते थे तो हमारे मुंह पर दरवाजा बंद कर देते थे गलियों से बात करते थे कहते थे तुम कोरोना फैलाने आई हो"।

औसतन, एक आशा कार्यकर्ता की मासिक आय 2,000 रुपए प्रतिमाह से लेकर 5,000 रुपए प्रतिमाह तक होती है, यह इस बात पर निर्भर करता है कि वे किस राज्य में कार्य कर रही हैं। उनकी अधिकांश आय प्रोत्साहन राशि के रूप में है। उन्हें पूर्णटीकाकरण के लिए 75 रुपए, बच्चे की मृत्यु की सूचना देने के लिए 40 रुपए और गर्भवती महिला के साथ अस्पताल जाने के लिए 600 रुपए मिलते हैं।

एक आशा परगांव के 1000 हजार लोगों की जिम्मेदारी

आशा कार्यकर्ता रश्मि कहती हैं, “हमारा वेतन मान एक दिहाड़ी मजदूर से भी कम है, जबकि एक आशा पर गांव के 1000 हजार लोगों की जिम्मेदारी होती है, वेतन ही हमारा असल मुद्दा है और क्यों न हो, इस पर वर्षों से ध्यान नहीं दिया गया"। कुछ आशा ऐसी हैं जिनका घर उनके ही पैसों से चल रहा है, छोटे बच्चों को घर पे छोड़कर बारिश सर्दी-गर्मी में वो दौड़ती हैं, आज के समय मे 2000 रुपए में किस का घर चल सकता है, इतना काम कराया जाता है आशा से, पर हमारी ही सुनवाई करने वाला कोई नहीं है"।

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हर काम के लिए आशा पर निर्भर सरकार

“महामारी के दौरान हम घर-घर जाकर अपने और अपने परिवार के स्वास्थ्य को खतरे में डाल रहे हैं, लेकिन बदले में हमें केवल 1,000 रुपए प्रतिमाह का COVID भत्ता मिलता है और कभी-कभी इसमें देरी भी होती है" ये कहना है माधुरी का जो वेतन की बात से भावुक होकर आगे जोड़ती हैं, "स्वास्थ्य विभाग वाले लोग हर चीज आशा से मांगते हैं, कुछ भी चाहिए हो तो सीधा आशा को फोन कर देते हैं। कई आशाएं हैं जिन्होंने 15-15 साल तक काम किया है वेतन बढ़ने के इंतजार मे; आज बढ़ेगा कल बढ़ेगा सुनते-सुनते कई आशा इस दुनिया से चली गई"। "जो हम कह रहे हैं वो सब कहना चाहते हैं बस कोई डर के बोलता नही, कुछ बोलो तो प्रशासन के लोग कहते हैं 'इतनी दिक्कत है तो इस्तीफा दे दो तुम काम नहीं कर सकती तो कोई और कर लेगा', कोई और करेगा तो शोषण तो उसका भी होगा। प्रश्न सिर्फ हमारा नहीं है प्रश्न सबका है"।

अस्पताल में एक कमरे की भी नहीं सुविधा

मूलभूत सुविधाओं के बारे मे बताते हुए उषा देवी कहती हैं, "अस्पताल में आशा कभी इस कोने मे बैठी है कभी उस कोने मे बैठी है, वहां डॉक्टर का अपना कमरा है, नर्स का अपना कमरा है यहां तक सफाईकर्मी की भी अपनी अलग बैठने की व्यवस्था है परंतु आशा के लिए कोई व्यवस्था नहीं है, ये हमारा शोषण नहीं तो और क्या है, करोड़ रुपए हैं हर जगह खर्च करने के लिए पर आशा के लिए स्वास्थ्य केंद्र मे एक कमरा बनवाने के पैसे किसी सरकार के पास नहीं होते, हमारे बारे मे कोई नहीं सोचता"।

कोरोना होने पर भी नहीं मिलती कोई मदद

महामारी के दौरान, उनकी जिम्मेदारियां और बढ़ गईं क्योंकि उन्हें सर्दी-खांसी और बुखार के लक्षणों वाले मरीजों की जांच-पड़ताल करनी पड़ी; और कोविड रोगियों को नजदीकी स्वास्थ्य केंद्रों में भेजने का कार्य भी उनपर डाला गया। इन सारे कार्यों के लिए कोविड जैसी महामारी मे भी उन्हें बचाव सामाग्री मुहैया नहीं करवाई गई; इस बारे मे बात करते हुए माधुरी कहती हैं "कोविड के समय हमारे यहां आशाओं की सुरक्षा के लिए कुछ भी नहीं था, हम जमीन पर काम तो करते थे पर हमारे लिए कोई सुरक्षा नहीं थी। कोई आशा अगर गंभीर रूप से कोविड की चपेट मे आ जाती तो उसके इलाज के लिए भी कोई व्यवस्था नहीं थी, मुझे खुद को फील्ड में काम करने से कोविड हो गया था तो हमने अपना सारा इलाज निजी जगह कराया जिसमें हमारे पचासों हजार रुपए लग गए"।

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Oxfam India ने दी सुरक्षा किट

कोविड-19 के वक़्त आशा वर्कर्स पैसे और मूलभूत सुविधाओं के अभाव मे तो काम कर ही रही थी; साथ ही साथ अपने और अपने परिवार की सुरक्षा के उपायों-संसाधन से भी उन्हें वंचित रखा गया। इसी को देखते हुए वर्ष 2021 मे ऑक्स फैम इंडिया ने अपने कार्यक्रम मिशन संजीवनी की शुरूवात की जिसमे वे 9 राज्यों में आशा को कोविड प्रशिक्षण और सुरक्षा किट प्रदान कर रहे हैं ताकि वे खुद को सुरक्षित रखते हुए अपनी सेवा करना जारी रख सकें। उत्तर प्रदेश में अब तक इनके द्वारा तीन जिलों रायबरेली, फतेहपुर, प्रतापगढ़ में 7192 आशाओं को प्रशिक्षण और सुरक्षा किट प्रदान की जा चुकी है।

कोविड से लड़ने के लिए तैयार है आशा कार्यकर्ता

"इस ट्रेनिंग से आशाओं को बहुत सुरक्षा मिली है, इससे ये लाभ हुआ है कि इसमें आशा को सुरक्षित रखने का कार्य किया गया है"। इन शब्दों में रश्मि देवी ने इस प्रशिक्षण के बारे मे अपने विचार साझा किए।अनुमानित कोविड महामारी की तीसरी लहर के प्रश्न पर माधुरी देवी कहती हैं, "अब हम लोग बिलकुल डर नहीं रहें हैं, फिर से लहर आएगी तो मिलकर संघर्ष करेंगे। पहले तो बचाव का सामान नहीं मिला था इस ट्रेनिंग से तो वो भी मिल गया है"। उषा देवी अपनी बात के आखिर में कहती हैं, "हमें गांव के लोग जो भी कहते हैं उससे गिला शिकवा नहीं है हमें सबके साथ मिलके काम करना है, सबको साथ लेकर चलना है और सबको सुरक्षित रखना है"।

Oxfam India दे रहा आशाकार्यकर्ताओं को ट्रेनिंग

ऑक्सफैम इंडिया अब तक 48000 आशा कार्यकर्ताओं को कोविड प्रशिक्षण और सुरक्षा किट प्रदान कर चुका है। इनका लक्ष्य 60000 आशा कार्यकर्ताओं तक पहुंचना है। प्रियांश त्रिपाठी पेशे से एक सामाजिक कार्यकर्ता हैं और लखनऊ, उत्तर प्रदेश में स्थित एक वृत्तचित्र फोटोग्राफर और फिल्म निर्माता हैं। लिंग, आजीविका, यौन अधिकार और प्रजनन स्वास्थ्य और मानव अधिकारों से संबंधित मुद्दों में उनकी गहरी रुचि है।

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