मकर संक्रांति उत्तर भारत के प्रमुख त्योहारों में से एक है। लोहड़ी के अगले दिन मनाए जाने वाले इस त्योहार को पोंगल, खिचड़ी, माघी आदि के नाम से भी जाना जाता है। मान्यता है कि इस दिन सूर्य देव धनु राशि से निकलकर मकर राशि में प्रवेश करता है और तब ये त्योहार मनाया जाता है। इस दिन लोग पवित्र नदी में स्नान करते हैं और दान देते हैं। इस दिन वैसे तो खिचड़ी के दान का विशेष महत्व है। लेकिन इसी के साथ मकर संक्रांति पर तुलादान का भी विशेष महत्व है। ऐसा माना जाता है कि मकर संक्रांति पर किए तुलादान से बहुत लाभ मिलता है, संकटों से मुक्ति मिलती है और मोक्ष की भी प्राप्ति होती है। लेकिन सबसे पहले जानते हैं कि आखिरी तुलादान है क्या? इसके नियम और महत्व...
क्या है तुलादान?
हिंदू धर्म में वैसे तो दान को बहुत ही पुण्य माना जाता है, जिससे ईश्वर भी प्रसन्न हो जाते हैं। दान का ऐसा पुण्यकर्म है, जिसका फल मरणोपरंत भी मिलता है। लेकिन सभी दानों में तुलादान करने से सबसे ज्यादा पुण्य मिलता है। तुलादान ऐसे दान को कहते हैं, जो व्यक्ति के भार के अनुसार दिया जाता है। तुलादान में आपको स्वंय या जिसके लिए भी आपको दान करना है, उसके वजन के बराबर अनाज का दान किसी जरूरतमंद को कर दें।
तुलादान के नियम
- तुलादान करते हुए इस बात का ध्यान रखें कि ये दान किसी ऐसे व्यक्ति को ही दें, जो असहाय या जरूरतमंद हो। कभी भी अघाये हुए हो तुलादान न करें, वरना इसका फल नहीं मिलता है।
- मकर संक्रांति पर स्नान के बाद ही तुलादान करें। बिना स्नान किए किसी भी प्रकार का दान नहीं करना चाहिए।
- तुलादान यदि शुक्ल पक्ष के रविवार को किया जाओ तो सबसे उत्तम माना जाता है।
- तुलादान में आप अनाज, नवग्रह से जुड़ी चीजें या सतनाज जैसे (गेहूं, चावल, दाल, मक्का, ज्वार, बाजरा, सावुत चना) का दान कर सकते हैं।
तुलादान की परंपरा की शुरुआत कैसे हुई
पौराणिक कथा के हिसाब से विष्णुजी के कहने पर ब्रह्मा जी द्वारा तुलादान को तीर्थों का महत्व तय करने के लिए कराया था। इसके साथ ही तुलादान को लेकर भगवान कृष्ण से जुड़ी एक धार्मिक व पौराणिक कथा खूब प्रचलित है, जिसके अनुसार- एक बार श्रीकृष्ण पर अपना एकाधिकार जमाने के लिए सत्यभामा ने उन्हें नारद मुनि को दान दे दिया। इसके बाद नारद मुनि कृष्ण को लेकर जाने लगे। इसके बाद सत्यभामा को अपनी भूल का एहसास हुआ। लेकिन सत्यभामा के पास कोई कृष्ण को रोकने का रोई विकल्प भी नहीं था, क्योंकि वह तो पहले ही नारद मुनि को कृष्ण का दान कर चुकी थी।
तब कृष्ण को दुबारा प्राप्त करे के लिए सत्यभामा ने नारद मुनि से इसके उपाय के बारे में पूछा। नारद मुनि ने सत्यभामा से कहा कि वह, भगवान कृष्ण का तुलादान कर दे। इसके बाद एक तराजू लाई गई। तराजू के एक ओर श्रीकृष्ण बैठ गए और दूसरी ओर स्वर्ण-मुद्राएं, आभूषण, अन्न आदि रखे गए। लेकिन इतना सबकुछ रखने के बाद भी कृष्ण की ओर का पलड़ा नहीं तक हिला। ऐसे में रुक्मणी ने सत्यभामा को दान वाले पलड़े में एक तुलसी का पत्ता रखने को कहा। जैसे ही सत्यभामा ने दान वाले पलड़े में तुलसी का पत्ता रखा तो तराजू के दोनों पलड़े बराबर हो गए। इस समय श्रीकृष्ण ने ही तुलादान के महत्व के बारे में बताया था।