नारी डेस्क : भारत आस्था के केंद्र वाला देश है। यहां पर आपको थोड़ी- थोड़ी दूरी में कई मंदिर मिल जाएंगे। वहीं यहां पर आपको कई सारे चमत्कारी मंदिर भी मिल जाएंगे। इनका रहस्य ऐसा है कि वैज्ञानिक भी इसको सुलझा नहीं पाएं। आज हम ऐसे ही एक मंदिर की बात करने वाले हैं। ये दक्षिण भारत के केरल में स्थिति भगवान कृष्ण का मंदिर है। ये मंदिर केरल के थिरुवरप्पु में स्थित है। मान्यता है कि यहां पर अगर भगवान को समय से भोग न लगाया जाए तो मूर्ति सूख जाती है और भगवान की कमर पट्टी खिसककर नीचे चली जाती है। सुनकर रह गए न हैरान, पर ये सच है। आइए आपको बताते हैं मंदिर के इतिहास के बारे में...
ये है चमत्कारी मंदिर के पीछे की कहानी
पौराणिक कथाओं की मानें तो वनवास के समय पांडवों ने संकट से उभरने के लिए भगवान श्रीकृष्ण की मूर्ति बनाई थी और इसकी पूजा कर इसे भोग लगाने लगे। उनके साथ कई मछुआरे भी साथ में भगवान कृष्ण की पूजा करने लगे। जब पांडवों का वनवास खत्म हुआ तो उन्होंने मछुआरों के पास ही मूर्ति को रहने दिया। एक समय जब मछुआके किसी मुश्किल में फंस गए तो साधु ने कहा कि भगवान कृष्ण की ठीक से सेवा नहीं हो रही है, जिसके चलते कष्ट आ रहा है। ये बात सुनते ही मछुआरों ने मूर्ति का विसर्जिन कर दिया। आगे जाकर ये मूर्ति मूर्ति ऋषि विल्वमंगलम स्वामीयार की नाव से टकरा गयी। उन्होंने मूर्ति को पानी से निकाला और एक पेड़ के नीचे रख दिया। जब उन्होंने इस मूर्ति को दोबारा उठाना चाहा तो वह इसे हिला तक नहीं सके। ऋषि विल्वमंगलम स्वामीयार भगवान कृष्ण को यहीं स्थापित कर दिया। इस मूर्ति में भगवान कृष्ण का भाव उस समय का है जब उन्होंने कंस को मारा था तब उन्हें बहुत भूख लगी थी।
मान्यता है कि इस मंदिर में भगवान के विग्रह को बहुत भूख लगती है। यहां थाली में रखा हुआ प्रसाद धीरे- धीरे खुद गायब हो जाता है। कहते हैं, स्वयं प्रभु श्री कृष्ण इसको खाते हैं। इस बार ग्रहण काल में सभी मंदिरों की तरह इस मंदिर को भी बंद कर दिया गया, ग्रहण में यहां प्रसाद नहीं रखा गया। इसके बाद जो हुआ, उसने सब को हैरान कर दिया। ग्रहण काल के बाद जब कपाट खोले गए तो देखा कि भगवान की मूर्ति बहुत ही दुबली हो चुकी थी। उनके वस्त्र ठीले पड़ गए थे और कमरपेटी नीचे गिर गई थी। इस बात का पता जब आदि शंकराचार्य को चला तो वो हैरान रह गए। इसके बाद उन्होंने कहा कि ग्कहण काल में भी मंदिर खुला रहना चाहिए। तब से भगवान को दिन में 10 बार भोग लगाने की प्रथा चली पड़ी। इसके बाद मूर्ति वापस से तंदुरुस्त हो गई।