हर देशवासी को झांसी की रानी लक्ष्मीबाई पर नाज है लेकिन उन्हें नाज था अपनी सखी और अद्वितीय वीरांगना झलकारी बाई पर...। 28 साल की एक मस्तमौला, पक्के इरादे रखने वाली झलकारी बाई को शायद कम ही लोग जानते हैं। झलकारी बाई एक प्रसिद्ध दलित महिला योद्धा थीं, जिन्होंने रानी लक्ष्मीबाई की महिला सेना में झांसी की लड़ाई के दौरान 1857 के भारतीय विद्रोह में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। लक्ष्मीबाई की विश्वसनीय सलाहकार झलकारी बाई एक दलित परिवार में पैदा हुई थी। उन्हें उनके साहस और बलिदान के लिए याद किया जाता है। चलिए आपको बताते हैं कि कौन है झलकारी बाई, जिनका नाम इतिहास के पन्नों में इतना नीचे दबा है...
कौन थी झलकारी बाई?
झलकारी बाई एक सदोबा सिंह और जमुना देवी की इकलौती बेटी थीं। उनका जन्म 22 नवंबर, 1830 को झांसी के निकट भोजला गांव में हुआ था। उनका परिवार कोली जाति का था। मां की मृत्यु के बाद, उनके पिता ने झलकारी बाई का पालन-पोषण किया। उन्हें बेहद कम उम्र में ही हथियारों का उपयोग, घोड़े की सवारी और योद्धा की तरह लड़ने के लिए प्रशिक्षित किया गया।
बचपन से ही थी योद्धा बनने के गुण
बचपन से ही उनके साहस और वीरता के किस्से नामापुर झांसी के पूरन ने सुने थे, जो खुद कोरी जाति के थे।
उन्होंने एक जंगली तेंदुए को लाठी से मार डाला, जिसे वह जवानी में मवेशियों को चराने के लिए इस्तेमाल करती थी। झांसी के सेनापति प्रसिद्ध पहलवान पूरम सिंह, जो तीरंदाजी में अनुभवी और घुड़सवारी, आग्नेयास्त्रों और तलवार चलाने में भी माहिर थे, उन्होंने झलकारी से शादी करने की इच्छा जाहिर की। पूरम की मां और झलकारी बाई के पिता इसके लिए राजी हो गए और 1843 में उनका विवाह संपन्न हुआ।
रानी लक्ष्मी बाई के वेश में लड़ती रहीं झलकारी
झलकारी बाई की शक्ल रानी लक्ष्मीबाई से काफी मेल खाती थी। जब एक बाद पूजा के दौरान वह रानी लक्ष्मी बाई को बधाई देने गई तो रानी भी हैरान हो गई। फिर दोनों की दोस्ती का सिलसिला शुरू हो गया। 1857 की लड़ाई में जब अंग्रजों ने झांसी पर हमला किया और वो किले तक पहुंचने में कामयाब रहे। तब झलकारी बाई ने रानी से कहा कि आप जाइए मैं आपकी जगह लड़ती हूं।
वह मेकअप कर खुद ही रानी बन लड़ने लगी क्योंकि रानी उसकी सखी थी। वहीं, ये दोस्ती के साथ-साथ राज्य के प्रति प्रेम की भी बात थी... इसलिए झलकारी बाई ने अपनी जान तक लगा दी। रानी किले से बाहर निकल गई और झलकारी उनके वेश में बहादुरी से लड़ती रही। मगर, दुर्भाग्यवश जनरल ह्यूग रोज ने उन्हें रानी समझ पकड़ लिया।
कोई नहीं जानता अंत
कहा जाता है कि रोज ने झलकारी को छोड़ दिया था तो किसी का कहना है कि उन्हें तोप से उड़ा दिया गया था। वहीं, कुछ कहते हैं कि उन्हें कारवास दे दी गई थी। हालांकि झलकारी बाई की मृत्यु को लेकर कोई खास प्रमाण नहीं मिलते लेकिन बहुजन समाज में वह आज भी पूजी जाती हैं। वृंदावन लाल वर्मा ने के उपन्यास 'झांसी की रानी' में झलकारी बाई का जिक्र किया है लेकिन इतिहास के पन्नों में उन्हें जगह नहीं मिली। मैथिली शरण गुप्ता ने झलकारी बाई के बारे में लिखा है:
जा कर रण में ललकारी थी,
वह तो झांसी की झलकारी थी.
गोरों से लड़ना सिखा गई,
है इतिहास में झलक रही,
वह भारत की ही नारी थी।
जारी हुआ डाक टिकट
झलकारी बाई के सम्मान में भारत सरकार ने 22 जुलाई 2001 को एक डाक टिकट भी जारी किया था। वहीं अजमेर, राजस्थान में उनकी प्रतिमा और स्मारक भी बनाया गया है। वहीं, उनकी एक प्रतिमा आगरा में भी स्थापित की गई है। इसके अलावा लखनऊ में उनके नाम से एक हॉस्पिटल भी बनाया गया है।