दीवाली के अगले दिन हर साल विश्वकर्मा पूजा मनाई जाती है। इस दिन औजारों की पूजा होती है। पौराणिक कथाओं के अनुसार, भगवान विश्वकर्मा को वास्तुकार माना जाता है। यही कारण है कि विश्वकर्मा पूजा के दौरान फैक्ट्री आदि में काम करने वाले मजदूर मिस्त्री, कारीगर, शिल्पकार, फर्नीचर वाले और मशीनों में काम करने वाले लोग औजारों की सफाई करते हैं। लेकिन विश्वकर्मा पूजा शुरु कैसे हुई और इसके पीछे की पौराणिक कथा क्या है आज आपको इसके बारे में बताते हैं। आइए जानते हैं...
एक ही दिन होती है गोवर्धन और विश्वकर्मा पूजा
पौराणिक मान्यताओं के अनुसार, भगवान विश्वकर्मा का जन्म समुद्र मंथन के दौरान हुआ था। उन्हें शिल्पकार के रुप में पूजा जाता है। विश्वकर्मा जयंती हर साल 17 सितंबर को मनाई जाती है हालांकि भगवान विश्वकर्मा की पूजा के लिए गोवर्धन पूजा का दिन ही चुना जाता है। माना जाता है कि एक ही दिन गोवर्धन पूजा और विश्वकर्मा पूजा करना शुभ माना जाता है। यही कारण है कि हर कोई इन दोनों पूजा के लिए दीवाली का अगला दिन ही चुनता है। वहीं देश के कुछ हिस्सों में साल में 2 बार विश्वकर्मा पूजा की जाती है।
देवताओं के इंजीनियर माने जाते हैं भगवान विश्वकर्मा
भगवान विश्वकर्मा को दुनिया का पहला वास्तुकार और इंजीनियर माना जाता है। इस सृष्टि की रचना करने में परम पिता ब्रह्मा जी की विश्वकर्मा भगवान ने सहायता की थी। उन्होंने ही सबसे पहले इस संसार का मानचित्र तैयार किया था। प्राचीन काल में जितनी भी राजधानियां था उन सभी का निर्माण विश्वकर्मा जी ने ही किया था। यहां तक की सतयुग का स्वर्ग लोक, त्रेतायुग की लंका, द्वापर की द्वारिका और कलियुग का हस्तिनापुर सभी विश्वकर्मा भगवान ने ही बनाया था। सुदामापुरी की रचना के बारे में भी यही कहा जाता है कि उसके निर्माता भगवान विश्वकर्मा ही थे। इससे यही पता चलता है कि धन धान्य की चाह रखने वाले व्यक्ति को भगवान विश्वकर्मा की पूजा जरुर करनी चाहिए।
ये भी है एक पौराणिक कथा?
विश्वकर्मा भगवान जी को देवताओं के शिल्पी के रुप में विशिष्ट स्थान प्राप्त है। एक पौराणिक कथा के अनुसार, प्राचीन काल में काशी में रहनेवाला एक रथकार अपनी पत्नी के साथ रहता था। वह अपने कार्य में निपुण तो था लेकिन स्थान-स्थान पर घूमने पर भी वह भोजन से ज्यादा धन प्राप्त नहीं कर पाता था। उसके जीविकापर्जन का साधन भी निश्चित नहीं था इतना ही नहीं उस रथकार की पत्नी को पुत्र न होने के कारण चिंतित रहती थी। पुत्र प्राप्ति के लिए दोनों साधु और संतों के पास जाते थे लेकिन उनकी यह इच्छा पूरी न हो सकी तब एक पड़ोसी ब्राह्मण ने रथकार से कहा कि तुम दोनों विश्वकर्मा भगवान की शरण में जाओ तुम्हारी सारी इच्छाएं जरुर पूरी होगी और अमावस्या की तिथि का व्रत करके भगवान विश्वकर्मा का महत्व सुनों। इसके बाद अमावस्या को रथकार की पत्नी ने भगवान विश्वकर्मा की पूजा की जिससे उसे धन-धान्य और पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई और दोनों सुखी जीवन व्यतीत करने लगे।