'बेटी हैं कुदरत का उपहार, जीने का इसको दो अधिकार', 'बेटी को मरवाओगे तो दुल्हन कहा से लाओगे'... ये पंक्तियां हमने सुनी तो बहुत है लेकिन इस पर अमल बहुत ही कम लोग कर पाते हैं। ये बात सच है कि भारत में नारी को देवी का स्वरूप माना जाता है, लेकिन इस देवी पर हो रहे अत्याचार कम होने का नाम नहीं ले रहे हैं। कन्या भ्रूण हत्या, बाल विवाह, लड़का-लड़की में भेदभाव, घरेलू हिंसा दहेज प्रथा इसके सबसे बड़े उदाहरण है।
आज भी शिक्षा से वंचित है लड़कियां
आज के दिन यानी 11 अक्टूबर को अंतरराष्ट्रीय बालिका दिवस (International Day of the Girl Child) मनाया जाता है। इस दिन को मनाने का सबसे बड़ा कारण बालिकाओं के सामने आने वाली चुनौतियों और उनके अधिकारों के संरक्षण के बारे में जागरुकता लाना है। लेकिन सवाल यह है कि क्या समाज जागरुक हो रहा है? क्या दुनिया भर में बेटियां सुरक्षित है? भारत ही नहीं दुनियाभर की बात की जाए तो आज भी सैंकड़ों लड़कियां शिक्षा से वंचित है।
भारत में लिंगानुपात की स्थिति हुई बेहतर
यूनिसेफ़ की रिपोर्ट के मुताबिक दुनियाभर में महिलाओं और लड़कियों के खिलाफ हिंसा होना अब भी आम है। अगर भारत की बात की जाए तो यहां लड़कियों और लड़कों के लिंगानुपात की स्थिति बेहतर हुई है। सबसे हैरानी की बात तो यह है कि इतने कड़े कानून बनाने के बाद भी दुनियाभर में 15 से 19 साल की उम्र की बलात्कार की शिकार हो रही है। भारत में अब भी चार में से एक लड़की की शादी 18 साल की उम्र से पहले हो जाती है।
भारत सरकार ने बेटियाें के लिए उठाए कई कदम
हालांकि भारत सरकार बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ और सुकन्या समृद्धि योजना और अनिवार्य मातृत्व अवकाश नियम जैसे क़दमों के ज़रिए लैंगिक असमानता की चुनौतियों से निपटने की कोशिश कर रही है, लेकिन बावजूद इसके आज भी 10 से 19 साल की लड़कियां जेंडर की वजह से बहुत ज़्यादा भेदभाव झेल रही हैं। ऐसे में हर मां-बाप को अपने लड़कों को ये बात समझानी चाहिए कि उन्हें हिंसा करने का किसी को हक़ नहीं है। ऐसे अधिकार ना उन्हें संविधान देता है, ना धर्म देता है और ना पारिवारिक मूल्य देते हैं।
सम्पत्ति में अधिकार की लड़ाई लड़ रही बेटियां
वहीं भारत में लड़की के हक की बात की जाए तो लंबे समय से बेटियों के सम्पत्ति में अधिकार की लड़ाई सड़कों से लेकर कोर्ट तक लड़ी जा रही है। साल 2005 के हिंदू उत्तराधिकार (संशोधन) अधिनियम के पहले तो शादीशुदा महिलाओं को अपने पिता के घर कानूनी रूप से रहने का अधिकार तक नहीं था। साल 2005 में इस नियम को बदला गया और शादी के बाद भी बेटियों को अपने पिता की स्व-अर्जित प्रॉपर्टी पर बेटों के बराबर हक़ दिए गए।
बेटियों को मिले ये अधिकार
बेटियों को उत्तराधिकारी बनाने का अधिकार न केवल उन्हें सशक्त करता है, बल्कि ये जेंडर समानता की दिशा में भी एक मज़बूत आधार है, जो सीधे तौर पर समाज में लड़का-लड़की के भेदभाव को चुनौती देता है। अगर बेटी का अपने परिवार की संपत्ति पर कोई अधिकार न हो, वो आत्मनिर्भर न हो तो वो समाज की कुरीतियों के खिलाफ कभी आवाज़ नहीं उठा पाएगी। उनमें आत्मविश्वास, आत्मसम्मान, हिम्मत, हौंसला कभी नहीं पनप पाएगा। वो हमेशा दूसरों पर आश्रित रहेगी और किसी न किसी मर्द के सहारे को तलाशती रहेगी। जो औरत मर्दों के हुकुम बजाने को मजबूर होगी, वो कभी आज़ादी की सोच नहीं रख सकती।
अंतरराष्ट्रीय बालिका दिवस का इतिहास
अंतरराष्ट्रीय स्तर पर बालिका दिवस मनाने की पहल एक गैर-सरकारी संस्था ‘प्लान इंटरनेशनल’ ने की थी। इस संस्था ने “क्योंकि में एक लड़की हूँ” नाम से एक अभियान शुरू किया। इसके बाद इस अभियान को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर फैलाने के लिए कनाडा सरकार से संपर्क किया, तब जा कर कनाडा सरकार ने संयुक्त राष्ट्र के 55वें आम सभा में इस प्रस्ताव को रखा। अंतत: संयुक्त राष्ट्र ने 19 दिसंबर, 2011 को इस प्रस्ताव को पारित करते हुए 11 अक्टूबर का दिन अंतरराष्ट्रीय बालिका दिवस के रूप में चुना। इस तरह से 11 अक्टूबर, 2012 से पूरी दुनिया ने बालिका दिवस मनाने की शुरुआत हुई।