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मुश्किलों के सामने भी नहीं हारी निर्मल-प्रियंका, जानिए दोनों खिलाड़ियों की स्ट्रगलिंग स्टोरी

  • Edited By Anjali Rajput,
  • Updated: 03 Dec, 2019 03:43 PM
मुश्किलों के सामने भी नहीं हारी निर्मल-प्रियंका, जानिए दोनों खिलाड़ियों की स्ट्रगलिंग स्टोरी

हर किसी की जिंदगी में कोई ना कोई परेशानी तो होती है लेकिन यह आप पर निर्भर है कि आप उसका सामना कैसे करते हैं। आज हम आपको दो ऐसी जाबाज भारतीय महिलाओं के बारे में बताने जा रहे हैं, जिन्होंने अपनी मुश्किलों का सामना करते हुए ऊंचा मुकाम हासिल किया। हम बात कर रहे हैं वालीवॉल प्लेयर निर्मल तंवर और खो-खो खिलाड़ी प्रियंका की, जिन्होंने ना सिर्फ अपनी मुश्किलों का डटकर सामना किया बल्कि हर किसी के सामने एक मिसाल भी कायम की।

 

फिलहाल दोनों खिलाड़ी नेपाल में साउथ एशियन गेम्स में हिस्सा ले रही हैं। महिला खो-खो टीम ने पहले मैच में श्रीलंका को पारी से हराया। चलिए जानते हैं दोनों खिलाड़ियों के स्ट्रगल की कहानी...

भारतीय वॉलीबॉल टीम की कप्तान निर्मल तंवर

सबसे पहले बात करते हैं हरियाणा की निर्मल तंवर की जो बचपन से ही वॉलीबॉल खेलती आ रहीं है। मगर बचपन में जब वो वॉलीबॉल खेलती थी तों गांव के लड़के उनकी नेट को काट देते हैं लेकिन वह रोज नेट जोड़कर प्रैक्टिस करती थीं। आज निर्मल भारतीय वॉलीबॉाल टीम की कप्तान है। 

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लड़के वॉलीबाल नेट काट देते थे तो इसे जोड़कर प्रैक्टिस करती थी निर्मल

निर्मल के पिता आसन कलां में किसान है। निर्मल कहती हैं, 'मैं 5वीं तक प्राइवेट स्कूल में पढ़ी लेकिन वहीं गेम्स की सुविधा ना होने के कारण मुझे सरकारी स्कूल में एडमिशन लेनी पड़ी। मेरे कोच जगदीश ने मेरी अच्छी हाइट देखने के बाद मुझे वॉलीबॉल खेलने की सलाह दी। इसके बाद मैंने अपने भाई के साथ प्रैक्टिस शुरू कर दी। मेरे गांव में लड़कियां वॉलीबॉल नहीं खेलती थी इसलिए गांव वालों को मेरा खेलना अच्छा नहीं लगा। जब मैं स्कूल में वॉलीबाॅल की प्रैक्टिस करती तो गांव के लड़के नेट काट देते थे। फिर रोज सुबह कोच जगदीश के साथ नेट जोड़ती और फिर प्रैक्टिस करने लगती।'

कभी नहीं छोड़ी प्रैक्टिस

जब निर्मल जिला स्तर के कॉम्पटिशन जीतकर आई तो गांव वालों ने उनका सपोर्ट किया। इसके बाद 2014 में भोपाल के साई सेंटर में अंडर-23 के ओपन ट्रायल में भी वह सिलेक्ट हो गई। इसके बाद उन्होंने सिर्फ सफलता ही हासिल की। निर्मल बताती हैं कि उनकी निरंतरता ही सफलता का असली कारण है। घर में अगर कोई फंक्शन भी होता था तो वह प्रैक्टिस नहीं छोड़ती थी। यही नहीं, अपनी गेम्स के चलते वह 2 साल तक परीक्षा नहीं दे पाई। उन्होंने बीए भी ओपन की। बता दें कि उन्होंने पिछले गेम्स (2016) में गोल्ड जीता था। उनका कहना है कि मुझे इस बार भी गोल्ड की उम्मीद है।

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रेलवे से भी मिला सपोर्ट

गेम्स खेलने के साथ-साथ निर्मल रेलवे में टीसी की नौकरी भी कर रही हैं। हालांकि टूर्नामेंट के दौरान उन्हें रेलवे का पूरा सपोर्ट मिलता है। वह बताती हैं कि रेलवे की मुझे रेलवे की तरफ से खेलने के लिए पूरा समय मिलता है। मुझे ड्यूटी पर नहीं जाना होता। मैं रोज सुबह 6:30 से 9:30 बजे और शाम को 5:30 से 8:30 तक प्रैक्टिस करती हूं।

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खो-खो खिलाड़ी प्रियंका

दूसरी ओर,अब बात करते हैं महाराष्ट्र, ठाणे के पास बदलापुर की रहने वाली खो-खो टीम की खिलाड़ी प्रियंका की, जिन्होंने घर चलाने के लिए इस फील्ड में कदम रखा लेकिन इसके बाद उन्होंने इसी को अपनी करियर प्वाइंट बना लिया। फिलहाल प्रियंका भारतीय टीम की प्रमुख सदस्य हैं।

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आर्थिक तंगी के कारण खेलना शुरू किया खो-खो

प्रियंका बताती है कि 5वीं कक्षा में उनके टीचर लंगड़ी करवाते थे। बेहतरीन प्रदर्शन के बाद उन्हें खो-खो क्लब में शामिल कर लिया गया। उनके घर की स्थिति ठीक नहीं थी। घर में सिर्फ दो बहनें, मां और पिता ही थे इसलिए कमाने वाला पिता के सिवाय कोई नहीं था लेकिन उन्हें भी शराब पीने की बुरी आदत थी। ऐसे में उन्होंने खो-खो खेलना शुरू किया। जीतने के बाद इनाम के तौर पर जो पैसे मिलते थे, उसी से उनका घर खर्च चलता था। इसके बाद उन्होंने खो-खो को अपना लक्ष्य बना लिया, ताकि वो घर के लिए कुछ कर सकें।

गांव ने किया विरोध लेकिन मां ने नहीं छोड़ा साथ

जब प्रियंका 9वीं क्लास में हुई थी तो गांव वालों ने उनके खेलने का विरोध किया लेकिन उनकी मां ने उनका साथ दिया। वहीं प्रियंका के स्कूल टीचर ने भी उन्हें खेलने के लिए काफॉ प्रेरित किया। खो-खो की बदौलत ही प्रियंका को एयरफोर्स अथॉरिटी में नौकरी मिली। प्रियंका का कहना है, 'मुझे उम्मीद है कि खो-खो लीग शुरू होने के बाद खिलाड़ियों को और बेहतर सुविधा मिल सकेगी।'

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