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भाजपा ने राष्ट्रीय सुरक्षा का अपमान किया

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  • Updated: 01 May, 2019 04:01 AM
भाजपा ने राष्ट्रीय सुरक्षा का अपमान किया

मई 2013 में मैं भोपाल जेल में साध्वी प्रज्ञा से मिला। मैंने ऐसा इसलिए किया क्योंकि मुझे बताया गया था कि वह घातक बीमारी से पीड़ित हैं और उन्हें उचित चिकित्सा सहायता नहीं दी जा रही है। मुझे यह भी बताया गया था कि उनके अनुयायियों और संरक्षकों ने उन्हें उनके हाल पर छोड़ दिया है। 

इस मुलाकात से मुझे काफी उलझन का सामना करना पड़ा। प्रज्ञा ने मुझ पर यू.पी.ए.सरकार, विशेष कर गृह मंत्री पी. चिदम्बरम से मिलीभगत होने का आरोप लगाया। मुझ पर आरोप लगाया गया कि मैंने सरकार की ओर से साध्वी पर दबाव डाला। इससे मुझे काफी हैरानी और दुख हुआ। मैं उससे जेल सुपरिंटैंडैंट के कार्यालय में मिला था और हमारी बातचीत के दौरान जेल सुपरिंटैंडैंट तथा अन्य लोग भी उपस्थित थे। मैं मानवता के नाते उससे मिला था और उस समय प्रज्ञा के साथ एकजुटता दिखाने के लिए मुझे कोई खेद नहीं है। हालांकि इसके लिए उसने मुझे उलझन में डाला। 

लेकिन इसका अर्थ यह नहीं है कि मैं इतना भावुक हो जाऊंगा कि मैं उसके आडम्बर और झूठ का विरोध नहीं करूंगा। मैं अपने व्यक्तिगत शॄमदगी के बारे में चुप रहने के लिए स्वतंत्र हूं लेकिन शहीद हेमंत करकरे की शहादत का अपमान किए जाने पर मैं चुप नहीं रह सकता। यहां प्रश्र प्रज्ञा और स्वर्गीय करकरे की व्यक्तिगत दुश्मनी का नहीं है। यहां सवाल हमारे संवैधानिक लोकतंत्र के प्रति प्रतिबद्धता का है जो मुझे बोलने के लिए मजबूर करता है। 

क्या है ‘स्वामी’ और ‘साध्वी’ की परिभाषा
मैं एक स्वामी हूं। एक स्वामी का मुख्य कत्र्तव्य धार्मिक श्रेष्ठता होता है। यदि कोई स्वामी सच्चा है तो वह धार्मिक तौर पर पक्षपात नहीं कर सकता। वह पूरे विश्व का नागरिक होता है। जैसा कि वसुधैव कुटुम्बकम के दृष्टिकोण से स्पष्ट होता है। एक साध्वी के आध्यात्मिक अनुशासन पर भी यही बात लागू होती है। एक महिला जो पक्षपाती हो, जो हिंसा में विश्वास रखती हो, जो समाज के एक वर्ग के प्रति घृणा का समर्थन करती हो और जो सत्य के प्रति समर्पित न हो, वह किसी भी तरह से साध्वी नहीं हो सकती। 

मेरी चिंता प्रज्ञा को लेकर नहीं है बल्कि मोदी-शाह एजैंडे को लेकर है। उन्होंने सबसे पहले रणनीतिक तौर पर महत्वपूर्ण उत्तर प्रदेश में योगी आदित्यनाथ को मुख्यमंत्री बनाकर पहला महत्वपूर्ण परीक्षण किया। उसके बाद उन्होंने गुजरात, हिन्दुत्व राजनीति की तरह राज्य-दर-राज्य इस तरह के प्रयोग किए। हमारे इतिहास में पहले कभी भी किसी धार्मिक पद पर आसीन व्यक्ति को किसी प्रदेश का मुखिया नहीं बनाया गया। हालांकि योगी आदित्यनाथ ने लम्बे समय तक एक सांसद के तौर पर कार्य किया है और वह राजनीति में नए नहीं हैं लेकिन किसी राज्य के मुख्यमंत्री के तौर पर जिम्मेदारियां सांसद की तुलना में काफी अलग होती हैं। 

एक सांसद के मामले में साम्प्रदायिक पूर्वाग्रह और दुश्मनी की संभावना काफी कम होती है जबकि मुख्यमंत्री के मामले में कोई सीमा नहीं है। यदि योगी आदित्यनाथ की तरह धार्मिक पद पर आसीन कोई व्यक्ति किसी राज्य का सी.ई.ओ. बनता है तो जन प्रतिनिधित्व कानून, जिसमें यह कहा गया है कि धार्मिक आधार पर वोट नहीं मांगे जाएंगे, अर्थहीन हो जाता है। यह धर्मनिरपेक्ष लोकतंत्र को आघात पहुंचाने वाला है। 

प्रज्ञा को लाने का मकसद
मोदी-शाह द्वारा प्रज्ञा को मध्य प्रदेश में इसी तरह का माहौल बनाने के लिए चुना गया। इसके लिए शिवराज चौहान ने अपने कार्यकाल में 5 हिन्दू स्वामियों को राज्य प्रशासन में नियुक्त कर जमीन पहले ही तैयार कर दी थी। उनके इस कदम से उस समय कुछ चिंता पैदा हुई थी। भारत में कोई भी इस बात पर विश्वास नहीं करेगा कि प्रज्ञा ठाकुर जैसी अंडर ट्रायल को संभावित कानून निर्माता के तौर पर पेश करने से ‘गुड गवर्नैंस’ आएगी। यह हिन्दू राष्ट्र की स्थापना की ओर एक कदम है। प्रज्ञा द्वारा हेमंत करकरे के बारे में दिए गए बयान को इसी रोशनी में देखा जाना चाहिए। 

भाजपा की भोपाल से उम्मीदवार द्वारा करकरे की असामयिक मौत के बारे में की गई टिप्पणी क्या दर्शाती है? प्रज्ञा दो तरह की शक्तियों को भिड़ाने का कार्य कर रही हैं : एक शासन की और दूसरी धर्म की। करकरे ने साध्वी के खिलाफ प्रदेश की सत्ता के तहत कार्रवाई की जोकि लोकतांत्रिक है। साध्वी ने धर्म से शक्ति हासिल करते हुए उसे श्राप दिया। 

इस तरह की टिप्पणियों को अपरिपक्व कहना अनुभवहीनता होगी। यह टिप्पणी किसी खास इरादे से की गई है। इस टिप्पणी का मकसद लोगों के दिलो-दिमाग पर प्रभाव डालना है। अध्ययन यह साबित करते हैं कि लोग विचारों से नहीं, शक्ति से प्रभावित होते हैं। उदाहरण के लिए कोई भी धार्मिक आस्था वाला व्यक्ति दो देवताओं में से उसी को चुनेगा जो ज्यादा ताकतवर होगा। चुनाव में प्रज्ञा का प्रतिद्वंद्वी भी एक धर्मनिरपेक्ष व्यक्ति है। वह राजनीतिक और प्रशासनिक अनुभव में प्रज्ञा से कहीं आगे है। जैसे कि हेमंत करकरे राज्य के अधिकारी के तौर पर उससे कहीं श्रेष्ठ था। मैरिट के आधार पर प्रज्ञा दिग्विजय सिंह के सामने कहीं नहीं ठहरतीं। वह सिर्फ एक मामले में ही दिग्विजय सिंह से श्रेष्ठ हैं और वह हैं आध्यात्मिक शक्तियां जिनकी लोगों में बहुत मान्यता है। 

भाजपा के लिए प्रज्ञा की टिप्पणी एक विरोधाभास की तरह थी क्योंकि वह खुद को राष्ट्रवाद, राष्ट्रभक्ति और पाकिस्तान विरोधी भावनाओं का एकमात्र प्रतिनिधि मानती हैं इसलिए बयान में सुधार करना जरूरी हो गया। प्रज्ञा ने अपना अप्रिय बयान इसलिए वापस नहीं लिया कि यह अनुचित और गैर राष्ट्रवादी था बल्कि इसलिए कि इससे पाकिस्तान को हंसने का मौका मिला।-स्वामी अग्रिवेश

 
 

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