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Nari

मैं भी बनूं एक बेटी की मां

  • Updated: 16 Sep, 2014 09:27 AM
मैं भी बनूं एक बेटी की मां

मैं करीब 56 साल की थी। मेरा  छोटा भाई दूसरे कमरे में बाबा की गोद में अठखेलियां कर रहा था। मेरी मां दूसरे कमरे में मेरे बाल गूंथ रही थी। एक बूढ़ी अम्मा घर आई। मां ने उनका स्वागत चरण स्पर्श करके किया। वह आशीर्वाद देती है। बातों-बातों में वह मां से पूछती हैं कितने बच्चे हैं? मां बताती है। बूढ़ी अम्मा कहती है कि लड़की तो अमानत है। इसे एक दिन पराए घर जाना है।

 

मां उन्हें बड़े विनम्र व सहज भाव से जवाब देती हैं, ‘‘मैं लड़के-लड़की में फर्क नहीं करती। बिटिया को लड़के से ज्यादा प्यार दूंगी। लड़कों की तो सभी उच्च स्तर पर देखभाल करते हैं जिसे आप पराया धन कह रही हो उसे शिक्षा, संस्कार व आदर्श नारी बनाने का भरसक प्रयास करूंगी?’’

 

मेरी मां शिक्षा के साथ-साथ मुझे सत्य और गृहस्थ धर्म की बातें खेल-खेल में बताती रहीं। मैं पूरे मनोयोग से सुनती और उन्हें आत्मसात करती। मैं बड़ी हुई। मां मुझे संयम व मर्यादा का ज्ञान देती रहीं। मैं उनकी बातें समझने और उनका अक्षरश: पालन करने लगी। समय का चक्र घूमता गया। स्कूल-कालेज की शिक्षा पूरी हुई और विवाह का समय भी आ गया। माता-पिता ने मुझ अमानत को भाग्यानुसार पराए घर में सौंप दिया। मेरी असल परीक्षा की घड़ी अब शुरू हुई।

 

मां से मिले संस्कारों को ससुराल में फैलाने लगी। प्रभु की कृपा से चहुं ओर खुशहाली बरसने लगी। मैंने परिवार में प्रेम और सामंजस्य बनाया। निरर्थक बातों की ओर ध्यान न दिया। सत्संग का माहौल बनाया। आज मेरा पूरा परिवार खुश है। मेरी इच्छा है कि मैं भी एक लड़की को जन्म दूं और एक आदर्श मां बनूं।
 

— एक बहन

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