आयरलैण्ड के एक समृद्ध पादरी घराने में जन्मी कु॰ मार्गरेट एलिजाबेथ नोबल के अन्तःकरण में आस्तिकता और सेवा वृत्ति के बीज प्रारम्भ से ही थे पर इन भावनाओं को अब तक व्यापक क्षेत्र में गतिशील होने का अवसर नहीं मिला था। सन् 1885 में वह स्वामी विवेकानन्द जी के सम्पर्क में आई और उनके आदर्शों से बहुत प्रभावित हुई। मनुष्य जीवन का सर्वोत्तम उपयोग पीड़ित मानवता की रक्षा करने में है। इसके लिए किसी भी व्यक्ति को देश, जाति, लिंग आदि पूर्वाग्रह से नहीं बंधना चाहिए।
उन दिनों स्वामी विवेकानन्द धर्मोद्धार और संसार में नीति, सदाचार, सेवा, प्रेम और आध्यात्मिक गुणों के विकास जिस पर मनुष्य मात्र की सुख शांति आधारित है के लिए एक सक्रीय अभियान प्रारम्भ करना चाहते थे। उन्हें ऐसे योग्य कार्यकर्ताओं की आवश्यकता थी जो मानवता की सेवा के लिए सच्चे ह्रदय से त्याग कर सकें।
मार्गरेट नोबल एक सम्पन्न घराने की युवती थी। धन संपत्ति की उन्हें कोई कमी नहीं थी। सुख और विलासिता की प्रत्येक सामग्री उन्हें उपलब्ध थी। चाहती तो अमीरी और विलासिता का जीवन-यापन करती पर उन्होंने देखा कि जो सुख और शांति दीन-दुखियों और गिरे हुए को ऊपर उठाने में है भौतिक साधन और संपत्ति में कहां ? थोड़े दिन की आयु का सदुपयोग सेवा और परमार्थ में करना ही उन्होंने श्रेयस्कर समझा और विवेकानन्द के मिशन को पूरा करने के लिए चल पड़ीं।
घर वालों, मित्रों और बन्धु-बान्धवों ने रोका तो उन्होंने कहा," जो लोग पिछड़े हैं उनकी सेवा पहला कार्य है। किसी देश, जाति और लिंग के भेद-भाव से बंधना संकीर्णता है। यह सारा विश्व ही मेरा घर है और उसकी सेवा के लिए मैं थोड़े से व्यक्तियों से बंधकर नहीं रह सकती।"
वे आयरलैण्ड छोड़कर भारतवर्ष चली आई। महापुरुषों के प्रति निष्ठा का दर्शन ही नहीं वरन उनके आदर्शों के व्यापक प्रसार के लिए अपनी प्रतिभा, क्षमता और योग्यता को नियोजित करना भी आवश्यक है। उन्होंने विवेकानन्द से गुरु-दीक्षा ली, अपना नाम निवेदिता रखा और विश्व कल्याण की साधना में जुट पड़ीं। निवेदिता का अर्थ है समर्पन अर्थात जिसने अपना सब कुछ समर्पित कर दिया हो।
भारतीय धर्म और दर्शन का उन्होंने गहन अध्ययन कर सर्वप्रथम अपने को लोक-सेवा का सच्चा उत्ताधिकारी बनाया, साधनाएं की, आत्म-शक्तियों का विकास किया फिर समाज सेवा के कार्यों में जुट पड़ी और लौकिक सुखों की परवाह किए बिना अन्त तक उसी में जुटी रही। उन्हीं ने अपना " निवेदिता " नाम सार्थक कर दिया।
निवेदिता ने एक आदर्श रखा और महिलाओं को बताया कि महिलाओं को केवल गृहस्थ बनकर ही नहीं रहना चाहिए। उन्हें भी त्याग, तप और लोक सेवा का अधिकार है। अपने इस अधिकार क्षेत्र में उन्हें पीछे नहीं रहना चाहिए। आज जबकि अनेक शिक्षित महिलाएं इस देश, समाज और पीड़ित मानवता की सेवा पुरुषों के समान ही कर सकती हैं तो उन्हें हिचकिचाना या पीछे न रह कर सिस्टर निवेदिता के समान आगे आकर नारी के गौरव को सार्थक करना चाहिए।