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मां की कोख से शुरू होता है महिला का संघर्ष

  • Updated: 08 Mar, 2017 05:52 PM
मां की कोख से शुरू होता है महिला का संघर्ष

लाइफस्टाइल: 8 मार्च का दिन हम अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस के रूप में मनाते हैं। इस दिन को मनाने की सबसे बड़ी वजह यह है कि महिलाओं को पुरुषों के बराबर अधिकार दिए जाए लेकिन क्या सच में महिलाओं को अधिकार दिए जा रहे हैं? हमारी संस्कृति में स्त्री को पुरुष की अर्धागिनी कहा जाता है। अगर आंकड़ों की बात की जाए तो यह हमारे देश की आधी  आबादी का प्रतिनिधित्व करती हैं। औरतों की दशा सुधारने के लिए हमारे देश में अनेकों कानून और योजनाएं भी बनाई गई हैं लेकिन विचारणीय प्रश्न तो यह है कि क्या इन योजनाओं से देश की महिलाओं की स्थिति में मूलभूत सुधार हुआ है। शहर की बात हो या गांव की, महिला की स्थिति आज भी वैसी नहीं है, जैसी हम आशा करते हैं। सामाजिक जीवन हो या पारिवारिक परिस्थिति, शारीरिक स्वास्थय हो या उनका व्यक्तित्व विकास, एक महिला का संघर्ष तो मां की कोख से ही शुरू हो जाता है। 

आज भी आने वाला बच्चा लड़की हो तो भ्रूण हत्या जैसे कुकर्म किए जाते हैं। अगर एक औरत की कोख से एक अन्य स्त्री का जन्म होता भी है तो शुरू होता है दो स्त्रियों के संघर्ष। एक संघर्ष उस नवजीवन का जिसे इस दुनिया में आने से पहले ही रौंदने की कोशिशें की जाती हैं दूसरा संघर्ष उस मां का जो उसे इस दुनिया लाने का जरिया बनती है। भले ही हमारी संस्कृति में कन्याओं को पूजा जाता है। स्त्री को देवी लक्षमी, अन्नपूर्णा जैसे नामों से नवाजा जाता है लेकिन क्या उसे इन रूपों में समाज और परिवार भी स्वीकारता है? यदि हां तो उसे कोख में ही क्यों मार दिया जाता है? दहेज के लिए क्यों जलाया जाता है? नन्ही मासूमों से बलात्कार क्यों किया जाता है? कभी संस्कार तो कभी इच्छाओं के नाम पर उसकी आजादी क्यों छीन ली जाती है?

कमी कहां है?

हमारी संस्कृति, कानून और शिक्षा तो महिला की इज्जत करना सिखाता है। तो कमी कहां है? पूरे विश्व में 8 मार्च को मनाया जाने वाला महिला दिवस एवं महिला सप्ताह केवल कुछ महिलाओं के सम्मान और कुछ कार्यक्रमों के आयोजन के साथ हर साल मनाया जाता है लेकिन इस प्रकार के आयोजनों का खोखलापन तब तक दूर नहीं होगा जब एक महिला को अपने स्वाभिमान की रक्षा के लिए उसे किसी कानून, सरकार, समाज और पुरुष की आवश्यकता नहीं रहेगी अर्थात सही मायनों में वह पूर्ण रूप से आत्मनिर्भर हो जाएगी। 

दुर्भाग्य की  बात तो यह है कि कुछ महिलाओं ने स्वयं अपनी आत्मनिर्भरता के अर्थ को महज कुछ भी पहनने से लेकर देर रात तक कही भी कभी भी जाने की आजादी तक सीमित कर दिया है। काश! हम सब ये समझें कि खाने-पीने, पहनने या घूमने को आजादी नहीं कहा जाता। सहीं अर्थों में आजादी हैं आत्मनिर्भरता, खुलकर सोच पाने की आजादी, अपने दम पर कुछ करने की आजादी, इस विचार की आजादी कि वह केवल देह नहीं बल्कि उससे कहीं बढ़कर है। इसलिए जरूरत हैं तो एक ऐसे समाज के निर्माण की जिसमें यह न कहा जाए कि' न आना इस देस मेरी लाडो'

डॉ.नीलम महेंद्र

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